परमार्थ जीवन
हम जब कभी एकाग्र अवस्था में होते हैं तो जीवन को सार्थक बनाने के बारे में भी चिंतन करते हैं, किंतु सार्थकता कहां है, यह समझ आ जाए तो सही मार्ग का अवलोकन होता है। मनुष्य के पास बुद्धि, बल, ज्ञान, दया आदि जैसे गुण परमात्मा ने निधि के रूप में दिए हैं। किसी एक भी गुण के जागने पर मनुष्य अपनी मानवता में लीन हो जाता है। जैसे परमार्थ के लिए किया गया श्रम सार्थक है, अपने लिए तो सभी जीवन जीते हैं कुछ क्षण यदि दूसरे के लिए भी निकालें तो उससे जो आत्मशांति मिलती है वह शायद जीवन भर के समय में नहीं मिलती। असहाय की सहायता करके, क्षुधित व्यक्ति की क्षुधा शांत करके, रोगी की सेवा करके जो शांति मिलती है उन क्षणों को जब हम अपने जीवन में याद करते हैं तब उससे आत्मानुभव होता है। परिश्रम दूसरों के हित में हो, उसमें कोई स्वार्थ भाव न हो, निष्काम भाव हो। जनहित की कल्पना एवं वसुधैव कुटुंबकम् की भावना से हम अपने जीवन में किसी भी अवस्था में परमार्थ करने में सामर्थ्यवान हैं। बस इसके लिए हमारे अंदर संवेदनशीलता का भाव, मन उदार, स्वस्थ तथा छल-कपट, प्रपंच से दूर व दिखावा न हो। तभी सच्चे भाव का उदय होगा।
व्यासजी ने पाप-पुण्य का विश्लेषण दो ही वचनों में किया है कि परोपकार ही पुण्य है तथा दूसरों को कष्ट पहुंचाना ही पाप है। परोपकार के लिए हमें प्रकृति प्रेरणा देती है, किंतु दुर्भाग्य से हम इससे अनजान रहकर उसकी सेवा ग्रहण करते रहते हैं। नदियां अपने जल से भूमि को सिंचित करती हुई हमारे लिए अन्न का उत्पादन कराती हैं, हमें जीवन देती हैं। वृक्ष हमें फल-फूल प्रेरणा प्रदान करते हैं। पक्षी इन पर घोसला बनाते हैं। न नदी को और न ही वृक्ष को किसी प्रकार का स्वार्थ होता है। जिसके हृदय में परोपकार की भावना होती है वे जीवन में मुस्कराते हैं और परिश्रम करने में भी नहीं थकते। वे अपना श्रम किसी अभिलाषा से नहीं बल्कि परमार्थ के लिए करते हैं। इस प्रकार त्याग, बलिदान और आत्मविश्वास के साथ अपना जीवन सार्थक बनाते हैं।
[आशा द्विवेदी]
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