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    रस और रसिक

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    Updated: Fri, 09 Dec 2011 12:06 AM (IST)

    सौंदर्य की अनुभूति आनंद है। भक्ति-मार्ग में आनंद को ही रस कहा गया है। रसों में श्रृंगार-रस सर्वश्रेष्ठ है। भक्ति के क्षेत्र में यह मधुर अथवा उज्ज्वल रस कहलाता है। इस दिव्य रस का आस्वादन करने वाला ही रसिक [या माधुर्योपासक] है। रसिक का शाब्दिक अर्थ है- रसमर्मज्ञ। श्रुतियों ने परब्रह्मा भगवान श्रीकृष्ण को रसस्वरूप बताया है- 'रसो वै स:' [तैत्तिरीयोपनिषद]। जहां परम सौंदर्य है, वहीं परम रस है, और जहां परम रस है, वहीं परमानंद है। रस ने ही ब्रह्मा को कृष्ण [अर्थात सभी को आकृष्ट करने वाला] बना डाला, अन्यथा वह नीरस होकर सदैव बुद्धि का विषय बना रहता, कभी हृदय का स्पर्श न कर पाता। योग की चरमावस्था समाधि है। वहीं से रसोपासना का प्रारंभ है। श्रीभगवतरसिक की वाणी में- 'रसिक कहावै सोइ, नाम रूप गुन परिहरै।' कृष्ण व राधा नायक-नायिका न होकर रसरूप हैं और रसमय होकर भी रसिक हैं ['नायक तहां न नायिका, रस करबावत केलि']। रसानुभूति लीला-रस आधारित है, जिसमें सूत्रधार श्रीराधा हैं और भोक्ता श्रीकृष्ण।

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    प्रेमोन्मत्त रसिक भक्त जल में शर्करा की भांति प्रभु-प्रेम में अपना अस्तित्व विलीन कर देने [आत्मविसर्जन] को उद्यत रहता है। वृंदा-विपिन की ललित निकुंजों में केलिमग्न प्रिया-प्रियतम की मनोरम झांकी को निहारकर कृतकृत्य होता है। रसिकजन ही राधिका कृपा प्राप्त साधक के हृदय में दिव्य रस की प्राण-प्रतिष्ठा कर पाते हैं। इसीलिए श्रीललितकिशोरीजी रसिकों की जूठन खाने के लिए वन-वीथियों में श्वान होकर डोलने को लालायित हैं- 'कूकुर ह्वै बन-बीथिन डालौं, बचे सीथ रसिकन के खाऊं।' अतीत में 'गोपनीयम्-गोपनीयम्' की गुहार लगाकर सच्चिदानंद परमात्मा के आत्म-रमण वाले इस अति विलक्षण रस को गुप्त रखने की चेष्टा की गई, किंतु 'हरित्रयी' के रूप में विख्यात रसिकवृंद [स्वामी हरिदासजी, हित हरिवंश महाप्रभु एवं श्रीहरिराम व्यासजी] धन्य हैं, जिन्होंने इस परम गुह्य चिरंतन रस को प्रकट कर उसे ब्रज -रसिकों का प्राणधन बना दिया।

    [डॉ. मुमुक्षु दीक्षित]

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