आप ने गंवाया अवसर
पिछले कुछ दिनों से आप यानी आम आदमी पार्टी के आंतरिक घमासान ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा हुआ है
पिछले कुछ दिनों से आप यानी आम आदमी पार्टी के आंतरिक घमासान ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा हुआ है। ऐसा नहीं कि यह किसी पार्टी में पहली बार हो रहा है, लेकिन और पार्टियों में नेतृत्व को लेकर होने वाली कलह में कभी जनता ने इतनी रुचि नहीं ली। इसका कोई तो कारण होगा कि केजरीवाल बनाम योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण आदि के झगड़े को लेकर जनता में इतनी रुचि क्यों है? यह रुचि केवल दिल्ली के मतदाताओं में ही नहीं है, वरन पूरे देश में है। जब आप बनी तब देश में एक नई शुरुआत महसूस की गई। इसका कारण था कि इसमें तीन धाराओं का मिलन था। इसमें अन्ना के सामाजिक-आंदोलन की ऊर्जा थी, अरविंद केजरीवाल के एनजीओ-परिवर्तन का प्रबंध-कौशल था और योगेंद्र और प्रशांत की बौद्धिकता थी। इसके अलावा लोग देश में कांग्रेस बनाम भाजपा से ऊब चुके थे और उनको राष्ट्रीय स्तर पर कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था।
आप के आने से लोगों को एक नया राजनीतिक विकल्प मिला और उनमें एक नई आशा का संचार हुआ। इस आशा को पार्टी ने तब और बलवती किया जब पार्टी के 'थिंक-टैंक' माने जाने वाले योगेंद्र ने वैकल्पिक-राजनीति का बिगुल फूंका। राजनीति के वर्तमान स्वरूप ने आम आदमी को राजनीति से दूर कर दिया था। वह केवल कुछ खास लोगों की कर्मभूमि बन कर रह गई थी जिसमें पैसे वाले, अपराधी और राजनेताओं का संरक्षण पाए लोगों का बोलबाला था। राजनीति के बारे में एक दुष्प्रचार कर दिया गया कि जैसे वह कोई खराब चीज हो, गुंडे-बदमाशों के लिए हो और अच्छे लोगों का वहां क्या काम? आम आदमी पार्टी चाहती थी कि राजनीति के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदले और साधारण व्यक्ति भी राजनीति में आ सके। वह राजनीति के वास्तविक स्वरूप और उसके वर्तमान स्वरूप में जो अंतर्विरोध था उसे समाप्त करना चाहती थी, लेकिन इसके लिए उसे वैकल्पिक राजनीति का आह्वान करना था। योगेंद्र मूलत: इसके प्रणेता थे। उनके अनुसार, राजनीति का कोई विकल्प नहीं। उसका विकल्प तो तानाशाही है जिसे कोई नहीं चाहता। वैकल्पिक राजनीति से उनका अर्थ था एक ऐसी राजनीति हो जिसमें सदाचार और स्वराज का सम्मिलन हो। हम एक ऐसे भारत की ओर बढ़ सकें जहां गरीब, अशिक्षित और वंचित भी लोकतंत्र में सक्त्रिय भूमिका निभा सके। साथ ही अंतिम व्यक्ति का भी विकास हो और सामाजिक विविधता का आदर हो इसका आधार गांधीजी का यह विचार था कि राजनीति और नैतिकता एक साथ होनी चाहिए।
आज की राजनीति का संकट यह है कि इसमें नैतिकता के साथ राजनीति करना संभव नहीं। वैकल्पिक राजनीति में नैतिकता के साथ ही राजनीति करने की बाध्यता है और जब इस संकल्प के साथ आम आदमी पार्टी आगे बढ़ी तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि उसे लागू कैसे किया जाए? योगेंद्र का सुझाव था कि उसे संगठन और विचारधारा, दोनों के स्तर पर लागू किया जाए। संगठन में ईमानदारी हो और ऐसे लोगों को जगह दी जाए जो अच्छे हों-चाहे उनके पास पैसा, प्रभाव या रसूख न हो। उन तमाम 'वालंटियर्स' को भी संगठन से जोड़ने का सुझाव दिया गया जो बड़ी-बड़ी नौकरियां छोड़कर पार्टी को समर्पित हो गए। पार्टी को सामाजिक-आंदोलनों की ऊर्जा और स्वराज की आत्मा से भी अपने को जोड़े रखने का संकल्प लिया गया। यह पार्टी विचारधारा के स्तर पर भी ईमानदारी बरतना चाहती थी और कुछ नया दृष्टिकोण अपनाना चाहती थी। पार्टी के सामने तीन विकल्प थे। एक, किसी भी समकालीन विचारधारा को अपना लिया जाए। दो, किसी विचारधारा में कुछ समय लेकर परिवर्तन किए जाएं और फिर उसे लागू किया जाए। तीसरा विकल्प यह था कि कोई एक नई विचारधारा विकसित की जाए। योगेंद्र का मानना था कि ज्यादातर समकालीन विचारधाराएं किसी एक सामाजिक वर्ग या क्षेत्र को ही लक्ष्य करती हैं। ऐसे में उनकी पार्टी इसका विकल्प क्यों नहीं दे सकती? अर्थनीति में क्यों उसे वामपंथी या दक्षिणपंथी होने की जरूरत है? सेकुलरिज्म पर क्यों अल्पसंख्यकवाद या बहुसंख्यकवाद के द्वंद्व में पड़ा जाए? सामजिक न्याय की अवधारणा क्यों जातीय आरक्षण के परे नहीं जा सकती? इसी तरह विविधता राष्ट्रवाद की आधारशिला क्यों नहीं हो सकती? मकसद यह भी था कि विचारधारा को जनता और समाज के अनुरूप बनाया जाए न कि समाज को किसी विचारधारा के अनुरूप बदल दिया जाए। यह वह वैकल्पिक मॉडल था जो आज की स्थापित राजनीति से आम आदमी पार्टी को अलग करता था और इसीलिए लोगों में उसके प्रति एक आकर्षण था।
लार्ड ऐक्टन का यह कथन कि शक्ति भ्रष्ट कर देती है और पूर्ण शक्ति पूर्णरूपेण भ्रष्ट कर देती है, अरविंद केजरीवाल पर सटीक बैठता है। केवल दिल्ली की सत्ता से ही वह इतने मदांध हो गए कि उनको यही समझ में नहीं आ रहा कि कौन पार्टी का हितैषी है और कौन दुश्मन? इसी का परिणाम है कि जनता की नजर में अरविंद केजरीवाल काफी गिर गए हैं। जिस भाषा का प्रयोग उन्होंने अपने संस्थापक सदस्यों के लिए किया उसकी तो किसी को अपेक्षा ही नहीं थी। वह कुछ स्वार्थी तत्वों से घिरे लगते हैं जो उनको उकसाने का काम कर रहें हैं ताकि योग्य लोग पार्टी से बाहर हो जाएं और वे पार्टी पर हावी हो जाएं। अरविंद के लिए यह सत्ता-संघर्ष हो सकता है, लेकिन जो लोग प्रशांत-योगेंद्र को निकट से जानते हैं वे जानते हैं कि उनके लिए यह सैद्धांतिक-संघर्ष है। उनके लिए अपने सिद्धांतों से समझौता करके राजनीति करना संभव ही नहीं। वे अपनी वैचारिक दृढ़ता नहीं छोड़ सकते। वे आम आदमी पार्टी को एक 'आम पार्टी' के रूप में गिरते नहीं देख सकते।
हालांकि आम आदमी पार्टी का वर्तमान नेतृत्व-संघर्ष कांग्रेस के अंदर गांधी और सुभाषचंद्र बोस , जवाहरलाल और पुरुषोत्तामदास टंडन और इंदिरा एवं सिंडिकेट के नेतृत्व-संघर्ष की याद दिलाता है, लेकिन 'आप' तो अभी जन्मी ही थी, उसे अभी कुछ संभालने की जरूरत थी, देश में अपना वज़ूद कायम करना था और लोगों को यह विश्वास दिलाना था कि वह सत्ता की प्रबल दावेदार है। इस बिंदु पर योगेंद्र और केजरीवाल के नजरिये में कोई अंतर्विरोध नहीं था, लेकिन शायद वे इसे समझ नहीं सके।
केजरीवाल पांच वषरें तक दिल्ली में शासन कर 'सुशासन का एक मॉडल' देते और प्रशांत-योगेंद्र अन्य राज्यों में पार्टी का जनाधार विकसित करते जिससे जब कभी उन राज्यों में चुनाव होते तो लोगों को एक उम्मीद होती कि आप की सरकार उनके राज्य में भी सुशासन का दिल्ली मॉडल लागू करेगी और तब वे शायद उसे ही वोट देते। वैसे भी जब केजरीवाल दिल्ली में शासन कर रहे होंगे तो पार्टी की राज्य इकाइयां पांच साल तक अपने-अपने राज्यों में करेंगी क्या? आम आदमी पार्टी के नेतृत्व-संघर्ष से जनता को घोर निराशा हुई है, लेकिन यह मानना ठीक नहीं कि वैकल्पिक राजनीति की संभावना ही खत्म हो गई है। 'आप' खत्म नहीं हुई है। यह जरूर है कि उसने एक ऐतिहासिक अवसर खो दिया है। पूरे देश में यदि वह सत्ता में नहीं आ पाती तब भी एक सशक्त विपक्ष के रूप में जरूर उभरती और नैतिकता एवं राजनीति को एक मंच पर लाकर वैकल्पिक राजनीति का प्रयास कर सकती थी।
[लेखक एके वर्मा, राजनीतिक विश्लेषक हैं]
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