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    ज्ञान का महत्व

    By Edited By:
    Updated: Sat, 29 Mar 2014 04:38 AM (IST)

    देव-दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी हम प्रेम, एकता, परोपकार और सेवा आदि गुणों को धर्म के अनुसार नहीं कर रहे हैं। यह एक शाश्वत सत्य है कि जो आया है उसे एक दिन जाना है, लेकिन मनुष्य अज्ञानता व सत्संग के अभाव में 'जाना' भूल जाता है और तरह-तरह के सांसारिक लोभ-मोह के मायाजाल में फंसा रहता है। आत्मा तो अजर-अमर है। उसका विनाश नहीं होता। भक्ति मार्ग पर चलने वाला मनुष्य कभी मरता नहीं, सत्संग करने वालों और उसी के अनुसार अपने जीवन को ढालने वालों को कोई नहीं मार सकता।

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    भक्ति मार्ग पर चलने वाला कुछ ऐसा कर जाता है कि वह कभी नहीं मरता। धर्मग्रंथों के अनुसार भाग्यहीन है वह व्यक्ति, जो मरते समय कुछ साथ नहीं ले जाता है। ईश्वर की भक्ति में लगे भक्त को इस तरह की चिंता नहीं रहती। वैसे भी गुरु-मत, संत-मत और शास्त्र-मत के अनुसार जीवन को सुव्यवस्थित रूप से ढालने वाला ही अपने साथ कुछ ले जाता है। अधिकांश लोग इस गूढ़ ज्ञान को न जानने के कारण अपनी जीवन वृथा ही गुजार देते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने साथ परोपकार ले जाता है। मानव की पहचान प्यार, सद्भाव, परोपकार, शांति और वंचितों की मदद करने आदि गुणों से होती है। अपनी इसी पहचान को खोने वाला मानव पशु तुल्य है।

    संतों, महापुरुषों, गुरुजनों की सच्ची व सबसे बड़ी सेवा यह नहीं कि धन, पुष्पहार अर्पित कर उनकी आरती उतारें, बल्कि उनकी सच्ची व सबसे बड़ी सेवा तो उनके उपदेशों को अपने जीवन में उतारने की है और उनके बताए रास्ते पर चलने की है। गुरुजनों, संतों और महापुरुषों को पहनाए जाने वाले हार का एक आध्यात्मिक अर्थ है। उसमें हार पहनाने वाला सुमन यानी अच्छा मन अर्पित करता है और कहता है-हे गुरुदेव! अच्छा मन तो है नहीं, मन प्रदूषित है, इस पुष्पहार के माध्यम से अपना मन-जीवन अर्पित कर रहा हूं। आप ही कृपा करके इसे सुंदर व पावन बना दें। आज के वैज्ञानिक तो तरह-तरह के प्रदूषणों के बारे में चिंतित हैं, लेकिन हमारे संत, महापुरुष और प्रबुद्ध जन युगों पूर्व से वैचारिक व सांस्कृतिक प्रदूषण को लेकर चिंतित रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने इनसे मुक्ति का मार्ग भी बताया और दिखाया है।

    [आचार्य हरिचैतन्यपुरी कामां]