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    "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है", क्या सच है यह कहावत या हवा-हवाई हैं बातें?

    यह कहावत तो आपने कई बार सुनी होगी- खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। आसान भाषा में समझें तो इसका मतलब है कि एक व्यक्ति दूसरे के प्रभाव में आकर वैसा ही बन जाता है। ऐसे में क्या भी मानते हैं कि खरबूजे भी एक-दूसरे को देखकर सचमुच रंग बदलते हैं? आइए साइंस के नजरिए से समझते हैं।

    By Nikhil Pawar Edited By: Nikhil Pawar Updated: Wed, 14 May 2025 04:05 PM (IST)
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    "खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग बदलता है", क्या सच में होता है ऐसा? (Image Source: Freepik)

    लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। हमारे समाज में बहुत सी कहावतें हैं, जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं। कुछ कहावतें सिखाने के लिए होती हैं, कुछ चुटीली बातों को समझाने के लिए और कुछ गहराई से भरी होती हैं जो जीवन की सच्चाइयों को बहुत सरल शब्दों में बयां कर देती हैं। ऐसी ही एक कहावत है- "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।" हालांकि, सवाल ये उठता है कि क्या ये कहावत केवल शब्दों का खेल है या इसमें कोई साइंस भी छिपी है? आइए इस कहावत को थोड़ा गहराई से समझते हैं।

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    क्या है कहावत का मतलब?

    इस कहावत का सीधा-सा अर्थ है कि व्यक्ति अपने आसपास के माहौल और संगति का प्रभाव जल्दी लेता है। जैसा वातावरण होगा, व्यक्ति उसी रंग में ढलने लगता है। यह कहावत बताती है कि संगति, यानी साथ उठने-बैठने वाले लोगों का असर, व्यक्ति के विचारों, व्यवहार और लाइफस्टाइल पर गहरा असर डालता है।

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    कैसे बदलता है खरबूजे का रंग?

    अगर हम इस कहावत को शाब्दिक रूप से देखें तो वैज्ञानिक रूप से खरबूजे का रंग बदलने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि एक खरबूजा दूसरे को देखकर रंग बदलता है, लेकिन यह जरूर सच है कि फल पास-पास रखने से उनके पकने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है।

    दरअसल, कुछ फल जैसे कि केला, आम, सेब आदि पकने के दौरान एथिलीन गैस छोड़ते हैं, जिससे आसपास के फल भी जल्दी पक जाते हैं। हालांकि, खरबूजा भी थोड़ा बहुत एथिलीन रिलीज करता है, लेकिन इसका रंग पास के खरबूजे को देखकर नहीं बदलता।

    कितनी सच साबित होती है यह कहावत?

    अब बात करते हैं असली मुद्दे की- इंसानी व्यवहार की। कई रिसर्च और मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से साबित हुआ है कि एक व्यक्ति का व्यवहार, सोच और भावनाएं बहुत हद तक उसके आसपास के लोगों और माहौल पर निर्भर करती हैं।

    उदाहरण:

    • अगर बच्चा हमेशा गुस्सैल माहौल में बड़ा होता है, तो वह चिड़चिड़ा हो सकता है।
    • अगर किसी व्यक्ति के दोस्त पढ़ाई में गंभीर हैं, तो वह भी मोटिवेट होकर मेहनत करने लगता है।
    • अगर ऑफिस में सभी लोग आलसी हैं, तो एक नया उत्साही कर्मचारी भी कुछ समय बाद सुस्त हो सकता है।
    • यानी कहावत का मतलब पूरी तरह से प्रैक्टिकल और सच्चाई से जुड़ा है।

    संगति का असर

    रामायण, महाभारत और नीति शास्त्र जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी सत्संग और कुसंग के असर का उल्लेख मिलता है। तुलसीदास जी ने भी लिखा है: "संगत के असर से मूर्ख भी ज्ञानी बन सकता है और ज्ञानी भी बर्बाद हो सकता है यदि गलत संगत में चला जाए।"

    क्या आज के समय में भी लागू होती है यह कहावत?

    बिलकुल! आज की दुनिया में जहां सोशल मीडिया, वर्चुअल फ्रेंड्स और डिजिटल संगति ने जगह ले ली है, वहां यह कहावत और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाती है। आप किसे फॉलो करते हैं, किसके साथ समय बिताते हैं, किन बातों को सुनते या पढ़ते हैं- ये सब आपके सोचने, समझने और व्यवहार करने के तरीके को आकार देते हैं।

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