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    खूबसूरत द्वीप पर अंग्रेजों का बनाया नरक था सेल्युलर जेल, ठीक था इसका वीरान हो जाना

    Updated: Sat, 25 Jan 2025 09:00 AM (IST)

    देश की धरोहर में अभी तक आपने जितने भी जगहों के बारे में पढ़ा उनकी बर्बादी की कहानी जानकर आपको अफसोस हुआ होगा। मगर आज हम जिस जगह के बारे में आपको बताने जा रहे हैं उस जगह के बारे में पढ़कर आप कहेंगे कि इस जगह को या तो कभी बनना ही नहीं चाहिए था या बहुत पहले वीरान हो जाना चाहिए था।

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    अंडमान के सेल्युलर जेल में पहली बार 10 मार्च 1858 को 200 कैदियों को जहाज से लाया गया था।

    शशांक शेखर बाजपेई। यह जगह एक सुंदर से द्वीप में अंग्रेजों का बनाया गया नरक था। नाम था सेल्युलर जेल, जहां काटी जाने वाली सजा को काला पानी की सजा कहते थे। जिन राजनीतिक बंदियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को यहां भेजा गया, अंग्रेजों ने उनके साथ क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं।

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    कई क्रांतिकारी तो यहां आजादी का सपना देखते-देखते गुमनामी में ही शहीद हो गए। कैदियों को पहनने के लिए जूट का कपड़ा दिया जाता था, जिससे उनके शरीर की चमड़ी तक छिल जाती थी। हाथ-पैरों में लोहे की बेड़ियों की वजह से घाव हो जाते थे और इलाज नहीं मिलने से कैदियों की मौत हो जाती थी।

    जहाज से लाए गए थे 200 कैदी

    ओटीटी प्लेटफॉर्म डिस्कवरी प्लस के शो एकांत में बताया गया है कि 10 मार्च 1858 को 200 कैदियों को समीरामीज नाम के जहाज के जरिये पहली बार अंडमान के सेल्युलर जेल में लाया गया था। उस समय यहां अंडमान में जेल की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसके कुछ दिनों बाद यहां वाइपर द्वीप पर एक जेल और फांसी घर बनवाया गया।

    साल 1890 में जेल कमेटी बनाई गई। उस कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया कि तीन लेयर का आइसोलेशन यानी एकांतवास होना चाहिए। पहला मुख्यभूमि से जेल को अलग कर दिया जाए। दूसरा, यहां के स्थानीय लोगों से जेल को अलग कर दिया जाए। तीसरा यहां रखे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को एक दूसरे से अलग कर दिया जाए।

    जेरमी बैंथम ने डिजाइन किया था जेल

    हर कैदी को एक छोटे-से कमरे में कैद रखा जाता था। कैदियों को बात करने की बिल्कुल इजाजत नहीं थी। इस वजह से इस तरह के कैदखाने को साइलेंट सिस्टम भी कहा गया है। इस सिस्टम को जेरमी बैंथम ने डिजाइन किया था, जिन्हें फादर ऑफ मॉर्डन प्रिजन सिस्टम भी कहा जाता है। - डॉक्टर एन फ्रांसिस जेवियर, अंग्रेजी विभाग के प्रमुख, जवाहरलाल नेहरू राजकीय विद्यालय, पोर्ट ब्लेयर

    बर्मा से जेल बनाने के लिए आई थीं ईंट

    सेल्युलर जेल को 1896 में बनाना शुरू किया गया था और इसके लिए बर्मा यानी आज के म्यांमार से ईंट लाए गए थे। बर्मा तब ब्रिटिश एम्पायर का ही हिस्सा हुआ करता था। इस जेल में 13.5 गुणा 7 फीट की 698 एकांत कोठियां बनाई गईं थीं।

    इन कोठरियों में रोशनी और हवा आने के लिए सिर्फ एक खिड़की बनी होती थी। सामने की तरफ लोहे का एक मजबूत दरवाजा होता था। कोठरी के अंदर कैदियों को लकड़ी की एक खटिया, लोहे की थाली और कंबल दिया जाता था। इन कोठियों में कैदियों को शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक बंद रखा जाता था।

    एकांतवास की कैद बंदियों के मानसिक संतुलन पर काफी असर डालती थी। इसके अलावा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को और भी कई तरह की शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना दी जाती थी। इसके चलते कई कैदी इस दौरान मानसिक संतुलन खो देते थे। कई कैदियों ने तो इस परेशानी से बचने के लिए आत्महत्या तक कर ली थी। दरअसल, उन्हें सजा काटने से ज्यादा आकर्षक तो मौत ही लगती थी।

    बहुत कम खुशकिस्मत लोग जिंदा निकले

    समंदर के बीच घने जंगलों में बने इस जेल में सावन के दौरान ऐसी काली घटाएं छा जाती थीं कि पानी भी काला दिखने लगता था। लिहाजा, इसी वजह से इसे काला पानी की सजा भी कहते थे। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि काला पानी नाम संस्कृत के शब्द काल से निकला है, जिसका अर्थ होता है समय।

    वही समय, जिसके बीतने से होती है मृत्यु। जिस भी क्रांतिकारी को काला पानी की सजा होती थी, लोग मान लेते थे कि अब वह यहां से जिंदा नहीं निकलेगा। बहुत ही कम स्वतंत्रता सेनानी यहां से जिंदा वापस निकल सके थे। उन्हीं में से एक थे विनायक दामोदर सावरकर।

    वह काला पानी की सजा काटकर 10 साल बाद रिहा हुए थे। मगर, जब वह जेल में बंद थे, तो उसी दौरान उनके भाई भी इस जेल में सजा काट रहे थे। मगर, ये बात दोनों भाइयों को जब पता चली, तब तक वो उसी जेल में दो साल बिता चुके थे। किसी को नहीं पता था कि किस कोठरी में कौन-सा कैदी बंद है। अब आप समझ सकते होंंगे कि किस हद तक का एकांत कैदियों को झेलना पड़ता था। इससे उनकी मानसिक स्थिति खराब हो जाती थी।

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    स्टारफिश की तरह बनी थी जेल

    पहले सेल्युलर जेल में 7 विंग होती थीं, जिसमें से अब सिर्फ 3 ही बची हैं। मगर, यहां सबसे खराब थी टॉयलेट की व्यवस्था। कैदियों को टॉयलेट जाने के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता था। अंग्रेज अफसरों के सामने रोना-गिड़गिड़ाना पड़ता था।

    स्टारफिश के आकार में बने इस जेल में सेंट्रल टावर से कैदियों की निगरानी की जाती थी। वैसे तो जेल से भागना लगभग नामुमकिन होता था। मगर, फिर भी यदि कोई कैदी भाग निकले, तो यहां लगी बड़े से घंटे को बजा दिया जाता था, जिससे पूरे द्वीप के सुरक्षाकर्मी सतर्क हो जाते थे।

    अब बची हैं 7 में से 3 ही विंग

    हालांकि, अब इस जेल की 7 में से 3 ही विंग बची हैं। इनमें से दो विंग जापानी सेना ने बंकर बनाने के लिए तोड़ दी थी, जबकि दो को भूकंप की वजह से खराब हालत में आने के चलते तोड़ दिया गया था। साल 1947 में भारत की आजादी के बाद सेल्युलर जेल को भारत सरकार के हवाले कर दिया गया था।

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    साल 1969 में भारत सरकार ने इस जेल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया। इसके बाद साल 2004 से यहां स्वतंत्र ज्योत लगातार जलती चली आ रही है, जो क्रांतिकारियों के बलिदान की हमेशा याद दिलाती रहेगी। इस जेल में आकर आपको उन शहीदों के दर्द का पता चलेगा, जिनकी वजह से आज हम आजादी की सांस ले रहे हैं।