छत्रपति शिवाजी ने आदिलशाह से जीता था विजयदुर्ग, पहली नौसेना बनाई… आपसी मतभेद में सब बिखरा
देश की धरोहर में आज हम आपको एक ऐसे किले के बारे में बताने जा रहे हैं जहां छत्रपति शिवाजी महाराज ने खुद भगवा लहराया था। इसके बाद यहां उन्होंने अपना नौसैनिक अड्डा बनाया। यह ऐसा अभेद किला था जिसकी समुद्री सीमा में घुसने से अंग्रेज और पुर्तगाली भी डरते थे। मगर मराठों की आपकी लड़ाई से सब बर्बाद हो गया।

शशांक शेखर बाजपेई। महाराष्ट्र के कोंकण में छोटा-सा शहर है विजयदुर्ग, जिसके समुद्र तट पर बना है विजयदुर्ग किला। ऐसा किला, जिसके वहां होने की वजह से अरब सागर में अंग्रेज से लेकर पुर्तगाली तक आने से डरते थे। मराठाओं के कब्जे वाले इस किले का इतिहास रोमांचित करने वाला है।
विजयदुर्ग और इसका बंदरगाह बहुत पुराना है। इस किले का निर्माण सिलार घराने के राजा भोज द्वितीय ने 11वीं शताब्दी में कराया था। पहली शताब्दी की लिखी किताब पेरिप्लस ऑफ द अरेबियन सी किताब में इस जगह का जिक्र मिलता है। यहां का बंदरगाह अभी भी इस्तेमाल में है।
इस किले का पुराना नाम घेरिया था। दरअसल, इस किले के आस-पास के 6 गांवों को घेरते हुए इसे बनाया गया था। शिलाहार राजाओं के बाद यह बहमनी सल्तनत का हिस्सा बना। इसके बाद बीजापुर सल्तनत का इस पर अधिकार रहा। इसके बाद महाराजा छत्रपति शिवाजी ने 1653 में बीजापुर के आदिलशाह से इस किले को जीत लिया।
दो ही किलों में शिवाजी ने लहराया था भगवा
ओटीटी प्लेटफॉर्म डिस्कवरी प्लस के शो एकांत में बताया गया है कि शिवाजी महाराज ने भारत के दो ही किलों में अपने हाथों से ध्वज फहराया था। पहला विजयदुर्ग और दूसरा तोरना का किला है। साल 1653 में शिवाजी ने इस किले को जीता था। उस साल का हिंदू पंचांग में नाम था विजय।
माना जाता है कि इसी वजह से इस किले का नाम विजयदुर्ग रखा गया। बताया जाता है कि शिवाजी महाराज को इस किले का सामरिक महत्व भी समझ में आ गया था। लिहाजा, उन्होंने इस किले की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए थे। दरअसल, उस दौर में विदेशों से सभी तरह के व्यापार समुद्री मार्गों से होते थे।
यहीं बनाया उन्होंने अपना नौसैनिक अड्डा
लिहाजा उन्हें समझ में आ गया था कि यदि समुद्र पर नियंत्रण चाहिए, तो उसके किनारे जितने भी किले हैं वो जीतने पड़ेंगे। यह किला जीतने के बाद यहां उन्होंने अपना नौसैनिक अड्डा बनाया। विजयदुर्ग किले को पूर्वी जिब्राल्टर कहा जाता था, क्योंकि यह लगभग अभेद्य था।
इसे सबसे बड़ा फायदा 40 किमी लंबी वाघोटन/खरेपाटन खाड़ी की वजह से मिलता था। बड़े जहाज इस खाड़ी के उथले पानी में प्रवेश नहीं कर सकते थे। वहीं, मराठा युद्धपोत इस खाड़ी में लंगर डाल सकते थे और समुद्र से अदृश्य रह सकते थे।
किले से करीब 1.5 किमी दूर वाघोटन खाड़ी में चट्टानों को तराश कर नौसेना गोदी का निर्माण किया गया था। यहीं पर मराठा युद्धपोत बनाए गए और उनकी मरम्मत की गई। यहां बने जहाज 400-500 टन क्षमता के थे। यह गोदी उत्तर दिशा की ओर है और मराठा नौसेना वास्तुकला का एक प्रमुख स्थल है।
17 एकड़ तक फैलाया किले का परिसर
पुराना विजयदुर्ग किला सिर्फ 5 एकड़ जमीन पर बना था। इसे धीरे-धीरे बढ़ाते हुए उन्होंने 17 एकड़ तक फैला दिया था। किले से चारों तरफ निगरानी करने के लिए 27 बुर्ज बनवाए थे। हालांकि, अब यह दुर्ग वीरान है और खंडहर हालत में पहुंच चुका है।
यह बाहर से बहुत छोटी-सी जगह लगती है, लेकिन इसके अंदर हर तरह की खूबी थी। यहां आनाज रखने के लिए गोदाम था। मीठे पानी की झील, बाहर निकलने के लिए गुप्त सुरंगें भी बनीं थीं। किले की वास्तुकला अपने आप में बहुत अद्भुत है।
दुश्मनों पर सबसे पहले चलती थी जख्नी तोप
इस किले को लैटेराइट पत्थरों से बनाया गया था, जिसे चूना और पिघले हुए लेड यानी शीशे से जोड़ा गया था। बताते हैं कि 1862 में यहां से कई सारी बंदूकें और तोप के गोले बरामद किए गए थे। जब आप किले में घूमने आएंगे, तो जगह-जगह पर तोपों को रखा हुआ पाएंगे।
एकांत के शो में स्थानीय निवासी सुरेश सावंत ने बताया कि यहां एक जख्नी तोप है। दुश्मन का हमला होने पर सबसे पहले उसे चलाया जाता था। जख्नी का मतलब होता है चुड़ैल। यानी तोप चलाकर चुड़ैल को दुश्मनों पर छोड़ दिया जाता था, जिसके बाद दुश्मन का जीतना मुश्किल हो जाता था।
मराठाओं के आपसी मतभेद से हुई तबाही
1680 में छत्रपति शिवाजी के निधन के बाद मराठाओं में आपसी मतभेद पैदा हो गए थे। इसके बाद औरंगजेब ने शिवाजी के बेटे संभाजी की हत्या कर दी। इसके बाद शिवाजी के पोते शाहूजी महाराज ने अपने लिए पेशवा यानी प्रधानमंत्री का पद बनाया। थोड़े समय पर ही उन्होंने मराठा राज्य पर अपना नियंत्रण स्थापित भी कर लिया।
मगर बाद के समय में तुलाजी और मानाजी के बीच संपत्ति और शक्ति को लेकर गंभीर झगड़ा हुआ। पेशवा नानासाहब ने दोनों के बीच सुलह कराई। आंगरे जागीर के दो हिस्से हुए, जिसमें उत्तरी भाग मानाजी को मिला और विजयदुर्ग वाला दक्षिणी भाग तुलाजी को मिला।
शाहूजी महाराज के सामने आपना ओहदा एक जैसा मानते हुए पेशवाओं के खिलाफ तुलाजी चले गए। उन्होंने पेशवा को राजस्व देने से मना कर दिया था, जिससे पेशवा खफा हो गए थे। उधर, नाना साहब का झुकाव मानाजी की तरफ था। जबकि शाहूजी को तुलाजी ज्यादा पसंद थे। उन्होंने तुलाजी को मराठा नौसेना का सारखेल बना दिया।
पेशवाओं ने अंग्रेजों से मांगी मदद, मिला धोखा
इस वजह से पेशवा और तुलाजी के बीच तनाव बढ़ गया था। साल 1749 में शाहूजी के निधन के बाद पेशवा नानासाहब सबसे ताकतवर बन गए। उन्होंने तुलाजी को हराने के लिए अंग्रेजों की मदद लेकर एक करारनामा कर लिया था। इसके बाद किसी तरह से अंग्रेजों ने मराठों को हरा दिया और 11 फरवरी 1756 में किले पर कब्जा कर लिया।
हालांकि, अंग्रेज बाद में अपने वादे से मुकर गए। उन्होंने विजयदुर्ग पेशवाओं को देने से इनकार कर दिया। बाद में इस किले के बदले बानखुर्द का किला दिया। मगर, ये किला पेशवाओं को देने से पहले अंग्रेज इसे पूरी तरह से लूट ले गए थे।
अंग्रेज उस समय करीब एक लाख रुपये नकद, 30 हजार रुपये की कीमती चीजें, भारी संख्या में तोप और गोला-बारूद ले गए थे। इतना ही नहीं, किले को छोड़ने से पहले वो किले के अंदर आग भी लगा गए थे। इससे पेशवाओं के हाथ खाली विजयदुर्ग लगा।
यहां कैसे पहुंचें
मुंबई-गोवा हाईवे से विजयदुर्ग 245 किमी दूर है। पुणे से बस के जरिये भी यहां पहुंचा जा सकता है। निकटतम रेलवे स्टेशन राजापुर और कुदाल में हैं। मालवन बंदरगाह से सिंधुदुर्ग बंदरगाह तक फेरी सेवाएं भी मिलती हैं। डोनाजे से किले के शीर्ष तक ट्रैकिंग की जा सकती है।
(डिस्क्लेमरः ओटीटी प्लेटफॉर्म डिस्कवरी प्लस के शो एकांत से जानकारी लेकर यह खबर बनाई गई है।)
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