विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक 2025: प्रो. मुरली मनोहर पाठक ने बताया उच्च शिक्षा की दिशा में ऐतिहासिक कदम
प्रो. मुरली मनोहर पाठक ने विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 को भारतीय उच्च शिक्षा के लिए एक ऐतिहासिक सुधार बताया है। यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2 ...और पढ़ें

प्रो. मुरलीमनोहर पाठक, कुलपति, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय।
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली: श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मुरलीमनोहर पाठक ने विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 को भारतीय उच्च शिक्षा के लिए एक ऐतिहासिक और परिपक्व सुधार बताया है। अपने विशेष लेख में उन्होंने इसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की भावना को संस्थागत रूप देने वाला दूरदर्शी विधायी उपकरण करार दिया है।
उनका कहना है कि भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली वर्तमान में एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है, जो ऐतिहासिक विरासतों, समकालीन विकासात्मक आकांक्षाओं तथा तीव्र गति से विकसित हो रही वैश्विक ज्ञान- आधारित अर्थव्यवस्था की जटिल अपेक्षाओं से आकार ग्रहण कर रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत ने उच्च शिक्षा तक पहुंचने तथा अकादमिक मानकों की रक्षा हेतु विनियामक निरीक्षण के माध्यम से एक केंद्रीय भूमिका निभाई है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद तथा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद जैसे संस्थानों की स्थापना स्वतंत्रता के बाद के विभिन्न चरणों में उभरती क्षेत्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की गई। इन निकायों ने विस्तार के दौर में संस्थागत स्थिरता और मानकीकरण सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, तथापि जैसे-जैसे उच्च शिक्षा प्रणाली परिपक्व होती गई, एक पूर्ण तथा अनुपालन-आधारित विनियामक ढांचे की आवश्यकता अधिक अनुभूत होने लगी।
प्रो. पाठक का कहना है कि इक्कीसवीं सदी में विश्वविद्यालयों से केवल ज्ञान के संप्रेषण की अपेक्षा नहीं की जाती, बल्कि उनसे नवीन विचारों के सर्जन, नवाचार को प्रोत्साहन, अंतर्विषयक अनुसंधान तथा जटिल सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के लिए शिक्षार्थियों को तैयार करने की अपेक्षा की जाती है। अत्यधिक प्रक्रियात्मक नियंत्रण, परस्पर आच्छादित विनियामक अधिकार-क्षेत्र तथा इनपुट-केंद्रित मूल्यांकन ढांचे प्रायः उच्च शिक्षा संस्थानों की इस व्यापक भूमिका के निर्वहन में बाधक सिद्ध हुए हैं।
इन संरचनात्मक चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए, भारत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से शिक्षा क्षेत्र का एक महत्वाकांक्षी अभिकल्पन प्रस्तुत किया। इस नीति ने निर्देशात्मक विनियमन से स्पष्ट रूप से विमुख होकर स्वायत्तता, उत्तरदायित्व, गुणवत्ता तथा वैश्विक सहभागिता को केन्द्रीय महत्व प्रदान किया। इसी दृष्टि को एक सुसंगत शासन ढांचे में रूपांतरित करने हेतु विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 एक निर्णायक विधायी उपकरण के रूप में हमारे सम्मुख आता है।
प्रोफेसर पाठक का कहना है कि यह विधेयक उच्च शिक्षा-शासन के प्रति एक परिपक्व एवं दूरदर्शी दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है। यह विनियामक तंत्र को समाप्त करने के स्थान पर उसके युक्तीकरण एवं समन्वयन का प्रस्ताव करता है। अनेक उच्च शिक्षा नियामक संस्थाओं को एकीकृत संस्थागत ढांचे में समाहित करने का प्रस्ताव दोहरी कार्यप्रणाली, विनियामक असंगति तथा प्रशासनिक अक्षमता संबंधी दीर्घकालिक चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करता है।
स्पष्ट रूप से परिभाषित विनियमन, प्रत्यायन तथा मानक-निर्धारण कार्यों के आस-पास शासन के पुनर्गठन के माध्यम से यह विधेयक उस संरचनात्मक स्पष्टता को स्थापित करता है, जिसका भारतीय उच्च शिक्षा प्रशासन में लंबे समय से अभाव रहा है। यह सुधार अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप है, जहाँ विनियामक सामंजस्य और संस्थागत स्वायत्तता पारदर्शी उत्तरदायित्वपूर्ण ढांचे के भीतर सह-अस्तित्व में रहते हैं।
उनका कहना है कि विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान का एक विशेष रूप से उल्लेखनीय पक्ष स्वायत्तता को चरणबद्ध एवं प्रदर्शन-आधारित प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करना है। स्वायत्तता को यहाँ एक निरपेक्ष विशेषाधिकार के रूप में नहीं, बल्कि संस्थागत क्षमता, अकादमिक अखंडता तथा प्रत्यक्ष उपलब्धियों पर आधारित अर्जित उत्तरदायित्व के रूप में परिभाषित किया गया है।
यह दृष्टिकोण विश्वास और निरीक्षण के मध्य संतुलन स्थापित करने वाली एक परिष्कृत नीतिगत समझ को दर्शाता है। इससे उच्च प्रदर्शन करने वाले संस्थानों को पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षण-विधियों, मूल्यांकन तथा अनुसंधान में नवाचार की स्वतंत्रता प्राप्त होती है, साथ ही जनहित एवं गुणवत्ता आश्वासन भी सुरक्षित रहते हैं। यह प्रारूप भारत के उच्च शिक्षा परिदृश्य की विविधता को स्वीकार करता है और एकरूप विनियमन (pitfalls of one size-fits-all regulation) की सीमाओं का अतिक्रमण कर उन्मुक्त वातावरण प्रदान करता है।
प्रो. पाठक कहते हैं कि प्रौद्योगिकी-सम्पन्न शासन पर सरकार का विशेष बल पारदर्शिता एवं दक्षता की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम है। डिजिटल प्लेटफॉर्म और एकल-खिड़की प्रणालियों के माध्यम से अनुमोदन प्रक्रियाओं के सरलीकरण से नौकरशाहीजन्य विलंब और विवेकाधीन निर्णयात्मकता में कमी आने की संभावना है।
यह परिवर्तन केवल प्रशासनिक नहीं है, बल्कि इसके गहरे अकादमिक निहितार्थ हैं। पूर्वानुमेय और पारदर्शी शासन संरचनाएँ संस्थानों को दीर्घकालिक शैक्षणिक योजना, अंतरराष्ट्रीय सहयोग तथा उभरते ज्ञान-क्षेत्रों के प्रति त्वरित अनुक्रिया में समर्थ बनाती हैं। इस दृष्टि से, विधेयक शासन सुधार और अकादमिक सशक्तीकरण के मध्य प्रशंसनीय सामंजस्य स्थापित करता है।
प्रो. पाठक का कहना है कि गुणवत्ता आश्वासन तंत्र का पुनःसंयोजन भी इस विधेयक का एक परिवर्तनकारी पक्ष है। पारंपरिक विनियामक मॉडल प्रायः भौतिक अवसंरचना, संकाय योग्यताओं एवं संख्यात्मक अनुपालन मानकों जैसे इनपुट-आधारित संकेतकों पर निर्भर रहे हैं। यद्यपि इनका अपना महत्व है, तथापि ये प्रायः वास्तविक शिक्षण अनुभव और उच्च शिक्षा के सामाजिक प्रभाव को पूर्णतः प्रतिबिंबित नहीं कर पाते।
विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान एक परिणामाधारित ढांचा प्रस्तुत करता है, जिसमें छात्रों की अधिगम-उपलब्धियों, कौशल विकास, रोजगार-क्षमता, अनुसंधान परिणाम तथा सामुदायिक सहभागिता को प्रमुखता दी गई है। यह परिवर्तन शिक्षा को संस्थागत आपूर्ति के रूप में देखने से हटकर उसे सामाजिक मूल्य-सर्जन की परिवर्तनकारी प्रक्रिया के रूप में समझने के गहन बौद्धिक संक्रमण को दर्शाता है।
प्रोफेसर का कहना है कि यह विधेयक छात्रों को उच्च शिक्षा पारितंत्र (ecosystem) के केंद्र में स्थापित करता है। अकादमिक, प्रशासनिक एवं वित्तीय सूचनाओं के सार्वजनिक प्रकटीकरण से संबंधित प्रावधान संस्थागत उत्तरदायित्व को सुदृढ़ करते हैं तथा हितधारकों को पूर्व से सूचित विकल्प के चयन की क्षमता प्रदान करते हैं। समर्थ शिकायत निवारण तंत्र छात्रों को निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं, बल्कि अधिकार-सम्पन्न सक्रिय सहभागी के रूप में मान्यता देता है।
इस प्रकार के प्रावधान उच्च शिक्षा संस्थानों में विश्वास की पुनः स्थापना तथा अकादमिक शासन की नैतिक नींव को सुदृढ़ करने में सहायक हैं।घरेलू सुधारों से परे, यह विधेयक एक आत्मविश्वासी वैश्विक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करता है। उच्च प्रदर्शन करने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेशी परिसरों की स्थापना एवं अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक नेटवर्क में सक्रिय भागीदारी की अनुमति देकर सरकार भारत को एक वैश्विक ज्ञान-केंद्र के रूप में स्थापित करने का स्पष्ट संकेत देती है।
उनका कहना है कि यह दृष्टिकोण भारतीय उच्च शिक्षा की गुणवत्ता एवं प्रासंगिकता में बढ़ते आत्मविश्वास को दर्शाता है और बौद्धिक नेतृत्व तथा सॉफ्ट-पावर विस्तार के व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप है। महत्वपूर्ण यह है कि यह वैश्विक सहभागिता घरेलू अकादमिक सुदृढ़ता पर आधारित है, न कि मात्र प्रतीकात्मक अंतरराष्ट्रीयकरण पर।अनुसंधान-केंद्रित एवं नवाचार-उन्मुख उच्च शिक्षा पारितंत्र के विकास पर बल सरकार की दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टि को और सुदृढ़ करता है।
अंतर्विषयक अनुसंधान, उद्योग-अकादमिक सहयोग तथा नवाचार-आधारित अधिगम को प्रोत्साहित कर यह विधेयक उच्च शिक्षा को विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सातत्य(sustainability) तथा सामाजिक विकास से जोड़ता है। विश्वविद्यालयों की परिकल्पना अब केवल शिक्षण संस्थानों के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान-उत्पादन और समस्या-समाधान के केंद्रों के रूप में की गई है। यह पुनःकल्पना विकसित भारत की उस व्यापक दृष्टि के अनुरूप है, जिसमें आर्थिक प्रगति का आधार बौद्धिक पूंजी और मानव क्षमता को माना गया है।
प्रो. मुरली मनोहर पाठक कहते हैं विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 भारतीय उच्च शिक्षा सुधार यात्रा में एक ऐतिहासिक उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करता है। यह नीतिगत परिपक्वता, प्रशासनिक दूरदर्शिता तथा विनियमन और स्वायत्तता के जटिल संबंध की सूक्ष्म समझ को प्रतिबिंबित करता है। संरचनात्मक अक्षमताओं के समाधान, गुणवत्ता मानकों को पुन:परिभाषित करके संस्थाओं को शक्तिसंपन्न बनाने, तथा उत्तरदायित्व के सुदृढ़ीकरण के माध्यम से सरकार ने एक अधिक गतिशील, समावेशी एवं वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी उच्च शिक्षा प्रणाली की नींव रखी है।
उनका कहना है कि जैसे-जैसे भारत स्वतंत्रता की शताब्दी की ओर अग्रसर है, यह सुधार विश्वविद्यालयों को बौद्धिक अन्वेषण, नवाचार और सामाजिक रूपांतरण के जीवंत केंद्रों के रूप में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है— ऐसे संस्थान जो न केवल कुशल पेशेवरों, बल्कि विचारशील और उत्तरदायी नागरिकों का निर्माण कर सकें, जो एक विकसित और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण में सार्थक योगदान दे सकें।

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