अरावली को लेकर SC का क्या आदेश? जिसे लेकर सड़कों पर उतरे लोग, सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा #SaveAravalli
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अरावली पहाड़ियों को लेकर बहस छिड़ गई है। फैसले में कहा गया है कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अपने आप जंगल नही ...और पढ़ें
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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अरावली पहाड़ियों को लेकर बहस छिड़ गई है। जागरण ग्राफिक्स
राजेश कुमार, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के हाल के एक फैसले ने अरावली पहाड़ियों को लेकर पर्यावरणविदों और आम जनता के बीच बहस छेड़ दी है। इस फैसले को '100-मीटर का फैसला' कहा जा रहा है, जिसमें यह साफ किया गया है कि अरावली इलाके में 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अपने आप 'जंगल' के तौर पर क्लासिफाई नहीं किया जा सकता।
'सेव अरावली ट्रस्ट' के विशेषज्ञ विजय बेनज्वाल और नीरज श्रीवास्तव ने इस फैसले पर गंभीर चिंता जताई है। उनका कहना है कि हरियाणा में सिर्फ दो चोटियां ही 100 मीटर से ऊपर हैं – एक तोसाम (भिवानी जिला) और दूसरी मधोपुरा (महेंद्रगढ़ जिला)। बाकी क्षेत्र अब संरक्षण से बाहर हो सकता है।
उन्होंने कहा कि इससे पूरे इकोसिस्टम को खतरा है। अरावली थार मरुस्थल की धूल को रोकती है, भूजल रिचार्ज करती है और जैव विविधता बनाए रखती है। अगर संरक्षण कमजोर हुआ, तो:धूल और प्रदूषण बढ़ेगा (दिल्ली में पहले से ही समस्या गंभीर है)।
- भूजल स्तर गिरेगा, बोरवेल सूखेंगे।
- गर्मी अधिक तीव्र होगी।
- स्वास्थ्य समस्याएं (सांस की बीमारियां आदि) बढ़ेंगी।
- लोगों का पलायन हो सकता है, क्योंकि रहने लायक जगह कम हो जाएगी।
विजय बेनज्वाल और नीरज श्रीवास्तव ने कहा कि इससे उद्योगपतियों को फायदा होगा (खनन और निर्माण आसान हो जाएगा), जबकि आम जनता बेहाल हो जाएगी। अरावली मरुस्थलीकरण रोकती है। अगर यह कमजोर हुई, तो थार का रेगिस्तान आगे बढ़ेगा। दुबई में धूल नहीं उड़ती क्योंकि वहां प्राकृतिक बैरियर मजबूत हैं, लेकिन दिल्ली में समस्या इसलिए है क्योंकि अरावली पर दबाव बढ़ रहा है।
दिल्ली का पर्यावरण संतुलन क्यों महत्वपूर्ण?
ब्रिटिश काल में दिल्ली को राजधानी इसलिए बनाया गया क्योंकि एक तरफ अरावली और दूसरी तरफ यमुना नदी थी, जो प्राकृतिक संतुलन बनाए रखती थीं। कोलकाता से दिल्ली शिफ्ट करने का मुख्य कारण यही पर्यावरणीय फायदा था। विशेषज्ञों का मानना है कि कोर्ट को केंद्र सरकार के प्रस्ताव को पूरी तरह स्वीकार नहीं करना चाहिए था। कोर्ट की अपनी सीमाएं हैं, और इस मुद्दे पर गहन अध्ययन की जरूरत थी।
सेव अरावली अभियान की अपील
ट्रस्ट ने एलान किया है कि वे 150 जिलों के जिलाधिकारियों को ज्ञापन सौंपेंगे। साथ ही, ऑनलाइन पिटिशन पर अब तक 41 हजार लोग साइन कर चुके हैं। अभियान का लक्ष्य फैसले के संभावित दुरुपयोग को रोकना और अरावली को पूर्ण संरक्षण दिलाना है। अरावली उत्तर भारत की 'लाइफलाइन' है। विशेषज्ञों की यह चिंता सही साबित हुई तो दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे क्षेत्र पर गंभीर असर पड़ेगा। अब सरकारों और समाज की जिम्मेदारी है कि संरक्षण को प्राथमिकता दी जाए।
पर्यावरण पर खतरा या विकास का रास्ता?
फैसले के बाद उठे विवाद का मुख्य कारण यह है कि इससे अरावली को धीरे-धीरे कमजोर करने का रास्ता खुल सकता है। खतरा फैसले में नहीं, बल्कि उसके दुरुपयोग में है। अगर भूमि रिकॉर्ड बदले गए, पर्यावरण प्रभाव आकलन को नजरअंदाज किया गया या विकास के नाम पर ढील दी गई, तो दिल्ली-एनसीआर की हवा और जहरीली हो सकती है, भूजल स्तर और नीचे जा सकता है साथ ही गर्मी अधिक बेरहम हो सकती है।

'अरावली बचाओ' का अभियान करते पर्यावरण संरक्षक और स्थानीय ग्रामीण। सोशल मीडिया
बता दें कि अरावली का फैलाव गुजरात से राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक लगभग 800 किलोमीटर है। हरियाणा और राजस्थान में इसका बड़ा हिस्सा राजस्व भूमि के रूप में दर्ज है, जो अब तक संरक्षण प्राप्त कर रहा था।

जागरण ग्राफिक्स
फैसले के बाद राज्य सरकारें तय करेंगी कि कौन-सी जमीन वन है और कौन-सी नहीं। इससे लोगों में संरक्षण के कमजोर होने का डर पैदा हो रहा है।
धूल बैरियर का क्या होगा?
अरावली एनसीआर के लिए एक प्राकृतिक डस्ट बैरियर है। अगर यहां खनन या वन कटाई बढ़ी, तो PM10 और PM2.5 जैसे प्रदूषक कणों में तेज बढ़ोतरी होगी और पहले से खराब AQI और बिगड़ेगा।
अध्ययनों के अनुसार, अरावली के नंगे हिस्सों से उड़ने वाली धूल सर्दियों की स्मॉग में बड़ा योगदान देती है। दिल्ली-एनसीआर में पहले से ही प्रदूषण की समस्या गंभीर है, और यह फैसला इसे और जटिल बना सकता है। पानी और जलवायु पर गंभीर खतराअरावली की चट्टानें बारिश के पानी को रोकती हैं और उसे धीरे-धीरे भूजल में पहुंचाती हैं।
हरियाणा-राजस्थान बेल्ट पहले से जल संकट से जूझ रहा है। अगर अरावली कमजोर हुई, तो बोरवेल और गहरे जाएंगे तथा ट्यूबवेल तेजी से सूखेंगे। साथ ही, अरावली को एनसीआर का प्राकृतिक कूलिंग सिस्टम कहा जाता है। कटाई बढ़ने से 'अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट' तेज होगा और गर्मियों में तापमान और ऊपर जाएगा।
"अरावली बचाओ" अभियान सिर्फ दिखावा!
कुछ लोगों का मानना है कि यह "अरावली बचाओ" अभियान कुछ लोगों का सिर्फ दिखावा है। उनका तर्क है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। पिछले तीन-चार दशकों में लोगों ने अरावली रेंज को पहले ही बहुत नुकसान पहुंचाया है, तो अब इससे क्या फर्क पड़ेगा?
Save Aravalli का आज जो नैरेटिव सोशल मीडिया पर उछाला जा रहा है, वो अरावली को बचाने का आंदोलन कम और एक दोगलापन भरी नैतिक नौटंकी ज़्यादा है...अरावली कोई कल पैदा हुई पहाड़ी नहीं है जिसे आज अचानक बचाने की ज़रूरत पड़ गई हो..
— Arjun bhatt (@Arjun_homecare) December 20, 2025
इसे सबसे ज़्यादा नुकसान पिछले तीन–चार दशकों में हुआ जब… pic.twitter.com/mRtgEcZXg1
लोगों का मानना है कि यह फैसला जंगल कटने की गारंटी नहीं है, लेकिन यह एक दरवाजा जरूर खोलता है। अब सब कुछ राज्य सरकारों की नीति और नीयत पर निर्भर करेगा।
अरावली को बचाने के लिए जरूर लिखें ..!!
— Sangita Bishnoi (@SangitaBishnoi_) December 19, 2025
कर्ज और फर्ज को जरूर समझें।
अपने हक और अधिकार के लिए लिखो
7 बजे से..!!#अरावली_बचाओ #अरावली_पर्वतमाला_बचाओ #Arawali pic.twitter.com/MZrLQnGJ9d
कोर्ट ने नियम स्पष्ट किए हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल कैसे होगा, यह विकास और संरक्षण के संतुलन पर टिका है। पर्यावरण कार्यकर्ता 'सेव अरावली' अभियान के तहत इस फैसले पर नजर रखने की अपील कर रहे हैं, ताकि अरावली का भविष्य फाइलों में नहीं, बल्कि जमीन पर लिए जाने वाले फैसलों में सुरक्षित रहे।
ग्राफिक्स सोर्स- जागरण संवाददाता
उल्लेखनीय है कि अरावली का संरक्षण न केवल पर्यावरण के लिए जरूरी है, बल्कि दिल्ली-एनसीआर की लाखों जिंदगियों के लिए भी। सरकारों को अब साबित करना होगा कि यह फैसला स्पष्टता लाएगा या संकट।
अरावली बचाओ #save_arawali_hills #arawalihills#arawali pic.twitter.com/hCt2Au9Js0
— Vishram Meena (@Vishrammeena466) December 20, 2025
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