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Aravalli Range: जानिये- दुनिया की प्राचीनतम वलित पर्वतमाला में से एक अरावली के बारे में, यहां छिपे हैं कई राज

Aravalli Range अरावली पर्वत माला में पाषाणकाल के भित्तिचित्र और औजारों के प्रमाण मिले हैं। अरावली को लेकर कहानियां बहुत हैं हर युग हर काल की हैं बस उन्हें कुरेदने वाला चाहिए। जिज्ञासु इस उपक्रम में जुटे भी हैं।

By Jp YadavEdited By: Published: Sat, 18 Sep 2021 09:23 AM (IST)Updated: Sat, 18 Sep 2021 09:26 AM (IST)
Aravalli Range: जानिये- दुनिया की प्राचीनतम वलित पर्वतमाला में से एक अरावली के बारे में, यहां छिपे हैं कई राज
जानिये- दुनिया की प्राचीनतम वलित पर्वतमाला में से एक अरावली के बारे में, छिपे हैं कई राज

नई दिल्ली/गुरुग्राम/फरीदाबाद। अरावली, एक पर्वत श्रृंखला ही नहीं बल्कि अपनी तहों में मानव और सभ्यता की विकास यात्रा का वृतांत समेटे है। कहानियां बहुत हैं, हर युग, हर काल की हैं, बस उन्हें कुरेदने वाला चाहिए। जिज्ञासु इस उपक्रम में जुटे भी हैं। इतिहास के पद चिन्हों की पुरा पाषाणकाल के भित्तिचित्र और औजारों से रूबरू कराने के बाद आज लौह युग के मिले प्रमाणों से रूबरू करा रही हैं प्रियंका दुबे मेहता

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अरावली पर्वत माला में पाषाणकाल के भित्तिचित्र और औजारों के प्रमाण पर हमने पिछले अंकों में विस्तार से रोशनी डाली ही थी। आज उसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए शोधकर्ताओं को मिले लौह युग के प्रमाणों की यात्र पर ले चलते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एंथ्रोपोलाजी (मानव विज्ञान) विभाग के शोधकर्ता शैलेश बैसला दो वर्षो से फरीदाबाद के कुछ गांवों से गुजरती अरावली माला पर काम कर रहे हैं। पाषाणकाल के भित्तिचित्र और औजार की खोज को राज्य पुरातत्व विभाग ने भी प्रमाणित किया था और राज्य पुरातत्व और संग्रहालय विभाग की उपनिदेशक बनानी भट्टाचार्य ने कहा था कि यह खोज बिलकुल अलग है। शैलेश ने इस पर काम किया है और महत्वपूर्ण शोध है, इसका संरक्षण किया जाएगा।

कोट गांव में मिली बसावट

फरीदाबाद के कोट गांव की पहाड़ियों में गहरे उतरें तो वहां तकरीबन दूसरी से दसवीं शताब्दी के विकास की कहानी मिलती है। छात्र शैलेश बैसला को वहां लौह प्रगलन के बाद बचे हुए अवशेष मिले और फिर उन्होंने और गहराई से अध्ययन किया तो पता चला कि वहां केवल लौह युग के इक्के-दुक्के साक्ष्य नहीं, बल्कि पूरी की पूरी बसावट के प्रमाण हैं। अब तक शैलेश ने तकरीबन 25 ऐसे घर तलाशे हैं जो एक से पैटर्न पर तीन कमरों के बने हैं। यहां हर घर में लोहा गलाने की भट्टियां मिली हैं। शैलेश के मुताबिक अभी और खोदाई हो तो निश्चित रूप से यहां पर और भी प्रमाण मिल सकते हैं।

पहाड़ के हर कोने पर शैलचित्र

शैलेश को जब आयरन स्लैग या गलाने के बाद मिला अवशेष दिखा तो उन्होंने पहले उत्तर प्रदेश में 2003 में खोदाई करने वाले पुरातत्ववेत्ता राकेश तिवारी द्वारा निकाले प्रमाणों से मिलान किया और पाया कि यह उसी तरह के अवशेष हैं जो शैलेश को मिले हैं। इस पर उन्होंने आगे काम करना शुरू किया तो बहुत सी चीजें मिलीं। उन्होंने राज्य पुरातत्व विभाग को इसकी जानकारी दी तो उन्होंने इस पर आगे खोदाई और शोध करवाने को कहा। पुरा पाषाणाकाल की इस साइट पर फरवरी 2020 से काम कर रहे हैं। उन्हें जो शैलचित्र मिले थे वह पहाड़ के हर एक कोने पर मिल रहे थे। ऐसे में वे तलाश कर रहे थे कि कहां पर कितने शैलचित्र रिकार्ड कर सकते हैं। उसी के दौरान उन्हें कुछ खंडहर दिखाई दिए लेकिन कभी वे पास नहीं गए। एक दिन वे अंदर गए तो वहां पर लोहे जैसी धातु दिखाई दी। पास ही बंद भट्टी मिली और वहीं उसमें से लोहे को पिघलाने के बाद बचा हुआ पदार्थ (हेमाटाइट) मिला। ऐसे में शैलेश उसे अपने कालेज लेकर गए और अपने प्राध्यापकों को दिखाया तो उन्होंने भी इसके लौह अवशेष होने की बात की पुष्टि की।

यमुना के किनारे था इलाका

अरावली का यह हिस्सा यमुना किनारे था। ऐसे में मानव इसी के किनारे अपनी सभ्यता को विकसित कर रहा था। पहले पुरापाषाणकाल और फिर लौह युग तक वह यमुना किनारे पूर्व की ओर बढ़ता चला गया। ऐसे में उत्तर प्रदेश और बिहार में इस युग के लगातार प्रमाण मिलते रहे हैं। पुरातत्ववेत्ता राकेश तिवारी ने 2003 में उत्तर पदेश की साइट पर काम किया तो उन्हें भी उस दौर में यमुना नदी के किनारे रहे इलाकों में लौह युग से जुड़ी चीजें मिलीं। प्रो. रवींद्र कुमार का कहना है कि बाद में यहां पर प्राकृतिक जल स्नोत खत्म हुए और नदी दूर होती चली गई तो मानव भी यहां से पलायन कर गया होगा।

पुरपाषाण काल का है स्थान

इस स्थल का सांस्कृतिक इतिहास पुरापाषाण काल का है। इसमें उत्कीर्ण मानव हाथ और पैर, जानवरों के पंजे, मछली और सैकडों कपुल के रूप में शैलकला शामिल हैं जो इस साइट को सांस्कृतिक विरासत के मामले में बहुत समृद्ध बनाती हैं। यह क्षेत्र निचले पुरापाषाण काल से संभवत: मध्य पाषाण युग तक निरंतर बसावट में रहा है। शैलेश बताते हैं कि इस साइट की खोज और दस्तावेजीकरण करते समय उन्हें कुछ प्राचीन बस्तियों के खंडहर मिले। पहली नजर में ऐसा लगता है ये खंडहर पास के दसवीं शताब्दी के किले के समकालीन

मिली लौह प्रगलन भट्टियां

घर की संरचनाओं को देखकर पता चलता है कि इसमें एक भट्टी, खाना पकाने, भंडारण और स्नान के लिए अलग-अलग क्षेत्र होता था। कुछ घरों में एक से अधिक भट्टियां और विशाल खुले क्षेत्र होते हैं। धार्मिक गतिविधियों के लिए संभवत: निíमत सार्वजनिक संरचनाएं या पवित्र संरचनाएं आवासीय क्षेत्र के बाहर थे। ऐसी दो अनूठी संरचनाएं अब तक दर्ज की गई हैं। हो सकता है यहां कुछ अनुष्ठान किए जाते रहे हों और लोग संरचना के आसपास एकत्र हुए हों। यहां पर मौजूद अग्नि वेदियां इशारा करती हैं कि इस स्थान का उपयोग धाíमक अभ्यास के लिए किया जाता होगा। बस्ती के बाहर कुछ टीले मिले जो आयताकार या वर्गाकार कब्रगाह होने के मानदंडों को पूरा करते हैं। ऐसी चीजें इस इलाके में पहली बार मिली हैं। इससे पहले पुरातत्ववेत्ता राकेश तिवारी को 2003 में इस तरह के लौह युग के प्रमाण उत्तर प्रदेश की साइटों पर मिले थे।

इलाके में खोज की अभूतपूर्व संभावना

दिल्ली इंस्टीट्यूट आफ हैरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट के प्रो. रवींद्र कुमार का कहना है कि लौह प्रगलन जैसी तकनीक बहुत कठिन होती है। अन्य धातुओं का प्रगलन आसान है लेकिन लोहे को गलाने के लिए बंद भट्टी चाहिए होती है ताकि आक्सीजन से संपर्क न हो सके नहीं तो लोहा आक्सीडाइज हो सकता है। यह साक्ष्य बताते हैं कि वे उन्नत लोग थे और मस्तिष्क के निकास के साथ-साथ मानव में इस युग में कौशल भी आ गया था। उनका कहना है कि उत्तर भारत में कई स्थानों पर इस तरह के साक्ष्य मिले हैं। पुरातत्व विभाग की उप निदेशक बनानी भट्टाचार्य ने कहा है कि इस इलाके पर और काम करवाया जाएगा।


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