राजमाता सिंधिया के खिलाफ जाकर बेटे माधवराव ने ज्वाइन की थी कांग्रेस, मां ने वसीयत में छीना अंतिम संस्कार का हक
Scindia Family Story ग्वालियर के सिंधिया परिवार की पारिवारिक कलह और राजनीतिक उठापटक किसी से छिपी नहीं है। राजमाता विजयाराजे सिंधिया और बेटे माधवराव के बीच संबंध काफी खराब रहे। आइए जानते हैं सिंधिया परिवार से जुड़ी रोचक बातें।

नई दिल्ली, जागरण डिजिटल डेस्क। Scindia Family Story: मध्य प्रदेश के ग्वालियर का सिंधिया परिवार अपनी अथाह संपत्ति, पारिवारिक कलह और राजनीतिक उठापटक समेत कई कारणों से चर्चा में रहा है। पारिवारिक कलह और अशांति का दौर वर्षों पुराना है। ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया और बेटे माधवराव के बीच कलह की कहानियां आज भी याद की जाती हैं।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया देश की राजनीति में जाना माना चेहरा रहीं। मध्य प्रदेश के सागर जिले में जन्मी विजयाराजे सिंधिया ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस पार्टी से की थी। वह कई बार भारतीय संसद के दोनों सदनों में चुनी गईं। वह कई दशकों तक जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की सक्रिय सदस्य भी रहीं। वो अपने पिता की सबसे बड़ी संतान थीं। इनके पिता जालौन जिले के डिप्टी कलक्टर हुआ करते थे।
बेटे के बेहद करीब थीं राजमाता
माधव राव सिंधिया राजमाता के इकलौते बेटे थे। बेटे के साथ उनका रिश्ता साथी जैसा था। बेटे माधव को वह 'भैया' कहकर संबोधित करती थीं।
आपातकाल में तिहाड़ जेल में रही थीं कैद
आपातकाल के दौरान विजयाराजे को दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैदी के रूप में रहना पड़ा था। मृदुला सिन्हा द्वारा संपादित 'राजपथ से लोकपथ पर' पुस्तक में इसका उल्लेख किया गया है। जेल जाने पर उन्होंने कहा था, 'मेरा अपराध केवल इतना था कि मैं इंदिराजी के विचारों की विरोधी और जनसंघ के नेतृत्व वर्ग की एक प्रमुख कार्यकर्त्री थी।'
बेटे माधवराव की जो बात राजमाता को सबसे बुरी लगी थी, वो ये थी कि इमरजेंसी के दौरान जब वो जेल में बंद थीं तो उनके बेटे माधवराव नेपाल चले गए थे। इससे उनको गहरा धक्का पहुंचा था।
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इंदिरा के विचारों से प्रभावित था बेटा
मां राजमाता के सहयोग से बेटे माधवराव सिंधिया ने 1971 में जनसंघ के समर्थन से निर्दलीय चुनाव जीता। मगर बीतते वक्त के साथ माधवराव का झुकाव इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी की तरफ बढ़ता गया।
राजनीति ने मां-बेटे को किया दूर
उत्तर प्रदेश की रायबरेली लोकसभा सीट ने राजमाता विजयराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया की राहें हमेशा के लिए अलग कर दी थीं। दरअसल, 1980 में राजमाता के इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव मैदान में उतरने से माधवराव बेहद खिन्न हो गए। हालांकि राजमाता यह चुनाव हार गईं, लेकिन माधवराव गुना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत गए थे।
माधवराव ने थामा कांग्रेस का हाथ
1979 आते-आते राजमाता के न चाहते हुए भी माधवराव ने कांग्रेस का दामन पकड़ लिया। आत्मकथा में वह लिखतीं हैं, "इंदिरा गांधी ने उसे साफ शब्दों में कह दिया कि तुम स्वतंत्र रूप से चुनाव नहीं लड़ सकते। तुम्हें कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करनी होगी।"
मां और बेटे के रिश्ते के बीच सियासत ने जहर तो पहले ही घोल दिया था। माधवराव सिधिंया के पास कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था।
बेटे ने मां से बनाई दूरी
मृदुला सिन्हा द्वारा संपादित 'राजपथ से लोकपथ पर' पुस्तक में राजमाता बतातीं हैं कि माधवराव ने कहा, "अम्मा मैं मजबूर हूं। हम दोनों के मार्ग अब तीन और छह के हैं। आप अपनी दिशा जाइए, मुझे मेरे मार्ग पर चलने दीजिए।" इस तरह राजनीति ने एक मां और बेटे की बीच कभी न टूटने वाली दीवार खड़ी कर दी।
वसीयत ने सबको चौंकाया
बेटे से राजमाता की करवाहट उनकी मौत के बाद भी जारी रही। साल 1985 को उनके हाथ से लिखी बारह पन्नों की वसीयत जारी की गई, जिसमें उन्होंने माधवराव को अपने जीवन का सबसे दुखी अंग घोषित किया था। इतना ही नहीं उन्होंने माधवराव से अपनी अंतिम संस्कार का अधिकार भी छीन लिया।
बेटे से छीना अंतिम संस्कार का हक
माधवराव सिंधिया की जीवनी में वीर सांघवी लिखते हैं "इस वसीयत पर दो गवाहों प्रेमा वासुदेवन और एस गुरुमूर्ति के हस्ताक्षर थे। माधवराव के बारे में वसीयत में लिखा गया था कि वो न सिर्फ अपने राजनीतिक आकाओं के गुलाम बन गए हैं बल्कि उन्होंने मुझे और मेरे समर्थकों को परेशान करने में उनके औजार की भूमिका निभाई।
राजमाता ने लिखा कि वो अब इस लायक भी नहीं रहे कि वो अपनी मां का अंतिम संस्कार करें।" हालांकि 2001 में उनके निधन के बाद बेटे माधवराव सिंधिया ने ही उनकी चिता को मुखाग्नी दी थी।
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