कानपुर के रहने वाले एक अनजान ने दान किया बोन मैरो, थैलेसीमिया पीड़ित बच्चे को मिला जीवनदान
राजस्थान के 12 वर्षीय थैलेसीमिया पीड़ित प्रथम को कानपुर के 35 वर्षीय रोहित ने बोन मैरो दान करके नई जिंदगी दी। ढाई वर्ष पहले हुए प्रत्यारोपण के बाद बच्चा स्वस्थ है और उसका ब्लड ग्रुप भी बदल गया है। भारत में बोन मैरो दान पंजीकरण को बढ़ाने की आवश्यकता है।
राज्य ब्यूरो, जागरण, जागरण: थैलेसीमिया से पीड़ित राजस्थान के रहने वाले एक 12 वर्षीय बच्चे प्रथम और उत्तर प्रदेश के कानपुर के रहने वाले 35 वर्षीय रोहित का आपास में कोई रिश्ता नहीं है।
एक अनजान होते हुए भी रोहित ने अपना बोन मैरो दान कर प्रथम को नई जिंदगी दी। ढाई वर्ष पहले हुए बोन मैरो प्रत्यारोपण के बाद बच्चा अब पूरी तरह स्वस्थ है और उसका ब्लड ग्रुप भी ए से बदलकर ओ हो गया है।
मरीज व डोनर दोनों का ब्लड ग्रुप एक हो गया। प्रथम बड़ा होकर क्रिकेटर बनना चाहता है। मंगलवार को एक गैर सरकारी संगठन डीकेएमएस फाउंडेशन इंडिया की ओर से आयोजित प्रेसवार्ता में दोनों मिले, उनके चेहरे खिले थे।
प्रथम ने रोहित को अपना सुपरहीरो बताया
बच्चे ने रोहित को अपना सुपर हीरो बताया, लेकिन यह भी जागरूकता के अभाव में थैलेसीमिया से पीड़ित ज्यादातर बच्चों को ऐसा सुपर हीरो नहीं मिल पाता।
डाक्टर बताते हैं कि थैलेसीमिया से पीड़ित एक से डेढ़ प्रतिशत मरीजों को ही बोन मैरो प्रत्यारोपण हो पाता है।यदि बोन मैरो दान के लिए जागरूकता बढ़े तो रक्त विकार की इस बीमारी से पीड़ित ज्यादातर बच्चों का स्थायी इलाज हो सकता है।
बोन मैरो दान करने के लिए होती है पंजीकरण की जरूरत
बोन मैरो दान के लिए पंजीकरण बढ़ाने की जरूरत है। वैशाली स्थित मैक्स अस्पताल के हेमेटाेलाजी की विशेषज्ञ डाॅ. ईशा कौल ने बताया कि देश में करीब डेढ़ लाख थैलेसीमिया के मरीज हैं।
हर वर्ष करीब दस हजार बच्चे थैलेसीमिया मेजर बीमारी के साथ जन्म लेते हैं। जिन्हें बार-बार ब्लड चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। इसका स्थायी इलाज बोन मैरो प्रत्यारोपण है।
इसके लिए मरीज और डोनर का HLA (ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन) मैच करना आवश्यक होता है। 20 से 30 प्रतिशत मरीजों को ही परिवार में डोनर मिल पाते हैं।
माता-पिता को थैलेसीमिया माइनर हो तो बच्चों को हो सकती है बीमारी
माता-पिता दोनों थैलेसीमिया माइनर हों तो बच्चे को थैलेसीमिया बीमारी होने की संभावना 25 प्रतिशत रहती है। शादी से पहले एचपीएलसी जांच से यह पता लाया जा सकता है।
बच्चे के पिता विजय तुलसियानी ने बताया कि प्रथम जब सात माह का था, तब बीमारी के लक्षण सामने आए। शरीर सफेद दिखने लगा था। बार-बार ब्लड चढ़ाना दुखदायी था।
बाद में सीएमसी वेल्लोर बोन मैरो प्रत्यारोपण कराने ले गए। परिवार में कोई डोनर नहीं मिला। करीब सात वर्ष तक इंतजार के बाद एक दिन डीएकेएमएस के बोन मैरो रजिस्ट्री से डोनर मिलने की सूचना आई।
मां को बच्चे के लिए डोनर के रूप में मिला जन्मदिन का अनमोल उपहार
पिता ने बताया कि उनकी पत्नी के जन्मदिन के दिन डोनर मिलने की सूचना मिली। एक मां के लिए यह जन्मदिन का अनमोल उपहार था। गुरुग्राम में एक फार्मा मैनेजमेंट कंसल्टेंट कंपनी में काम करने वाले रोहित ने बताया कि वह 12वीं के बाद ही वह हर तीन माह के अंतराल पर रक्तदान करते थे।
कैलेंडर में 120 दिन का रिमाइंडर लगाकर रखते थे। ''द स्काई इज पिंक'' फिल्म देखकर बोन मैरो डोनर के लिए खुद को पंजीकृत किया। रजिस्ट्री में डोनर का एचएलए प्रोफाइल रखा जाता है।
कुछ महीने बाद बोन मैरो दान करने के लिए अनुरोध आया तो पता चला कि उनका कोई जेनेटिक जुड़वा है, जिसे उनकी मदद की जरूरत है। लोगों को गलत धारणा है कि यह बहुत जटिल प्रक्रिया है।
उन्हें बोन मैरो दान से पहले पांच दिन इंजेक्शन लगे थे, लेकिन दान करने के बाद वह अगले दिन ही भ्रमण पर निकल गए थे।
अमेरिका में 75-80 प्रतिशत होती है डोनर मिलने की संभावना
बच्चे का इलाज करने वाले सीएमसी वेल्लोर के हेमोटोलाजी के प्रोफेसर डाॅ. विक्रम मैथ्यू ने कहा कि अमेरिका में 75-80 प्रतिशत डोनर मिलने की संभावना रहती है।
जबकि भारत में डोनर मिलने की संभावना महज 10-20 प्रतिशत होती है। इस वजह से 42 वर्षों में डोनर से देश में 17,651 बोन मैरो प्रत्यारोपण हुए हैं।
इसमें 27 प्रतिशत (करीब 4765) ही थैलेसीमिया मरीज शामिल हैं। किसी दूर के व्यक्ति के दान से करीब 1500 प्रत्यारोपण हो पाए हैं।
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