Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    कभी घर-गृहस्थी तक सीमित थी राजमाता सिंधिया की दुनिया, नेहरू की इस शर्त ने दिलाई राजनीति में एंट्री

    By GeetarjunEdited By:
    Updated: Mon, 25 Jul 2022 04:20 PM (IST)

    आजादी के बाद पूरे देश की राजनीति कांग्रेस पर केंद्रित थी। वहीं ग्‍वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया का क्षेत्र में अच्छा प्रभाव था। कांग्रेस को डर था कि पुरानी ग्वालियर रियासत में उनकी जमानत जब्त हो सकती है। ऐसे में जीवाजीराव पर कांग्रेस को समर्थन देने का दबाव बनाने लगे।

    Hero Image
    कभी घर-गृहस्थी तक सीमित थी राजमाता सिंधिया की दुनिया, नेहरू की इस शर्त ने दिलाई राजनीति में एंट्री

    नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। Vijayaraje Scindia: साल 1947 में अंग्रेजों के शासन से मुक्ति मिलने के बाद कांग्रेस पार्टी के हाथों में देशभर की सत्ता केंद्रित थी। हालांकि, रियासत वाले कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस की नींव अब भी कमजोर थी। इधर उत्तर भारत में हिंदू महासभा राजनीति में नए विकल्प के तौर पर उभर रही थी।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    उस वक्‍त मध्य प्रदेश की पांच बड़ी रियासतों में से एक ग्‍वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया को जनमानस प्राप्त था। वर्ष 1956 में मध्य भारत का विंध्य प्रदेश और भोपाल रियासत के साथ मध्य प्रदेश में विलय कर दिया गया। तब तक जीवाजीराव मध्य भारत के 'राजप्रमुख' बने रहे।

    ये भी पढ़ें- राजमाता सिंधिया के खिलाफ जाकर बेटे माधवराव ने ज्वाइन की थी कांग्रेस, मां ने वसीयत में छीना अंतिम संस्कार का हक

    'राजपथ से लोकपथ पर' आत्मकथा में कही ये बात

    मृदुला सिंहा द्वारा संपादित राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' में वह बतातीं हैं, 'महाराज कांग्रेस की नीति और विचारों के विरूद्ध थे। कांग्रेस को लगने लगा कि वे हिंदू महासभा के समर्थक हैं। स्थानीय कांग्रेसियों को आगामी चुनाव में अपने भविष्य की चिंता सताने लगी थी।'

    हिंदू महासभा से कांग्रेस को था खतरा

    कांग्रेस के हालात की गंभीरता का इसी से पता चलता है कि उन्हें पुरानी ग्वालियर रियासत में लोकसभा की आठ और विधानसभा की साठ सीटों पर जमानत जब्त होने की चिंता सताने लगी थी। दिल्ली से पार्टी आलाकमान की ओर से उनपर लगातार हिंदू महासभा की टिकट पर चुनाव न लड़ने का दबाव बनाया जाने लगा। आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' में राजमाता उल्लेख करती हैं कि उन्हें या पति जीवाजीराव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

    इस तरह राजनीति में हुई एंट्री

    राजमाता विजयाराजे बतातीं है कि वो अपनी गृहस्थी, पति और बच्चों में ही संतुष्ट थी। मगर समाचार पत्र की खबरें और अफवाहें उनकी चिंता बढ़ा रही थीं। जाहिर सी बात थी कांग्रेस विरोधी होने के परिणाम से वह खूब वाकिफ थीं। राजमाता कांग्रसियों के मन से गलतफहमी को दूर करना चाहती थीं।

    नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने दिल्ली पहुंची, लेकिन उनकी मुलाकात एक शर्त के साथ हुई। शर्त यह थी कि अगर वो विरोधी नहीं हैं तो जीवाजीराव कांग्रेस के टिकट से लोकसभा चुनाव लड़ें। असमंजसता दोगुनी तब हुई, जब मना करने पर उन्होंने राजमाता को ही चुनाव लड़ने के लिए कहा।

    कांग्रेस की टिकट से जीतीं चुनाव

    राजमाता ग्वालियर लौटीं तो दिल्ली जाने के पछतावे के साथ। पति के साथ चर्चा हुई और कांग्रेस की टिकट से चुनाव लड़ने पर सहमति बनी। जनता के बीच सिंधिया घराने का प्रभाव ही था कि ग्वालियर हिंदू महासभा का गढ़ होने के बावजूद राजमाता कांग्रेस के टिकट पर भारी मतों से चुनाव जीत गईं।

    जनसंघ और भाजपा में अहम भूमिका

    आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' के अनुसार, राजमाता सांसद तो बन गईं, पर उन्होंने लोकसभा के कामकाज में कभी रुचि नहीं दिखाई। साल 1961 में जीवाजीराव के निधन के बाद राजमाता दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतीं। वह कई बार भारतीय संसद के दोनों सदनों में चुनी गईं। जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ जनसंघ की ओर रुख किया। भाजपा की स्थापना में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा।

    कांग्रेस छोड़ने का खामियाजा भी मिला

    राजमाता ने कांग्रेस से राजनीति में कदम तो रखा था, पर वह पार्टी के विचारों से कभी प्रभावित नहीं रहीं। यह कारण था कि उन्होंने जनसंघ के साथ दशकों तक जुड़ीं रहीं। राजपथ से लोकपथ पर में वह बतातीं हैं कि आपातकाल के दौरान उन्हें जेल में बंद कर दिया गया था। तब उनका अपराध केवल इतना था कि वह विपक्ष के प्रमुख चेहरों में थीं। इस दौरान वह दिल्ली के तिहाड़ जेल में कैद रहीं।