दिल्ली हाई कोर्ट की दो टूक- तलाक के बाद सास के घर पर बहू का कोई अधिकार नहीं, घरेलू हिंसा अधिनियम लागू नहीं
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि तलाक के बाद महिला का घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत ससुराल के घर पर कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने पारिवारिक न्यायालय के उस आदेश को सही ठहराया जिसमें सास के पक्ष में फैसला सुनाया गया था। अदालत ने महिला की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि उसने संपत्ति खरीदने में वित्तीय योगदान दिया था।

विनीत त्रिपाठी, नई दिल्ली। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि तलाक के माध्यम से विवाह विच्छेद के बाद घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा -17 के तहत किसी महिला को सास के घर का कोई अधिकार नहीं है। न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने कहा कि तलाक के वैध आदेश के बाद घरेलू संबंध समाप्त हो जाता है। ऐसे में कोई विपरीत वैधानिक अधिकार मौजूद न हो स्थिति में ससुराल के घर का अधिकार तब तक अस्तित्व में नहीं रहता।
बेटी के पक्ष में वसीयत बनाई
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 में प्रविधान है कि घरेलू संबंध में प्रत्येक महिला को साझा घर में रहने का अधिकार होगा, चाहे उसका उसमें कोई अधिकार, स्वामित्व या लाभकारी हित हो या न हो। अदालत ने उक्त टिप्पणी पारिवारिक न्यायालय के आदेश के खिलाफ एक महिला की अपील याचिका को खारिज करते हुए की। अदालत ने महिला की सास के पक्ष में निर्णय सुनाया। सास का 2016 में निधन हो गया था और उसका बेटी व बेटा कानूनी उत्तराधिकारी थे। मृतका ने अपनी बेटी के पक्ष में वसीयत बनाई थी।
निर्माण में वित्तीय योगदान दिया
पारिवारिक न्यायालय में बहू ने दावा किया था कि वह 1999 में अपनी शादी के बाद से ही विवादित संपत्ति पर रह रही थी और अब भी वहीं रहती है क्योंकि यह उसका वैवाहिक घर है। उसने दावा किया कि विवादित संपत्ति शुरू में उसके पति के नाम पर खरीदी गई थी और बाद में उसकी मां को स्वेच्छा के बजाय दबाव में हस्तांतरित कर दी गई थी।
महिला यह भी कहा कि उसने विवादित संपत्ति की खरीद और निर्माण में वित्तीय योगदान दिया था। उसने तर्क दिया कि वैवाहिक कलह के बाद सास ने अपने बेटे के साथ मिलकर उसे विवादित संपत्ति से बेदखल करने की कोशिश की और उसकी आपत्तियों के बावजूद, वैकल्पिक घर न होने पर भी उसे बलपूर्वक विवादित संपत्ति से बेदखल कर दिया गया था।
वैवाहिक बंधन या घरेलू संबंध नहीं
महिला की अपील याचिका खारिज करते हुए पीठ ने कहा कि भले ही बहू ने तलाक के आदेश को चुनौती दी थी और मामला नए सिरे से निर्णय के लिए शुरू किया गया था, फिर भी आज की तारीख तक दोनों पक्षों के बीच कोई वैवाहिक बंधन या घरेलू संबंध नहीं था।
साथ ही, पीठ ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि बहू का अंशदान का दावा एक लागू करने योग्य मालिकाना अधिकार में तब्दील नहीं हो सकता। पीठ ने कहा कि बेदखली का आदेश देते समय भी महिला को घर खाली करने के लिए छह महीने का समय दिया गया था, इससे यह स्पष्ट होता है कि यह प्रक्रिया न तो मनमानी थी और न ही अनुचित।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (1)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।