जोखिम के मुहाने पर खड़ा है हिमालय, ताजा रिपोर्ट में कारण गिनाते हुए जताई Integrated Action Plan की जरूरत
एक नई रिपोर्ट में हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन और अनियोजित विकास से बढ़ते खतरे पर चिंता जताई गई है। इसमें एकीकृत हिमालयन एक्शन प्लान की आवश्यकता पर बल दिया गया है, जिसमें मल्टी-हजार्ड अर्ली वार्निंग सिस्टम और सख्त भूमि उपयोग नियमों को शामिल किया जाना चाहिए। रिपोर्ट में 2030 तक आपदाओं से होने वाली मौतों को शून्य करने का लक्ष्य रखने का सुझाव दिया गया है।

जलवायु परिवर्तन और बेतरतीब मानव विकास हिमालय के लिए पैदा कर रहे आपदा जोखिम।
राज्य ब्यूरो, नई दिल्ली। ताजा रिपोर्ट में एक बार फिर चेताया गया है कि हिमालय एक अहम मोड़ पर खड़ा है, जहां जलवायु परिवर्तन और बेतरतीब मानव विकास मिलकर अभूतपूर्व आपदा जोखिम पैदा कर रहे हैं।
“Enhancing Multi-hazard Early Warning and Resilient Settlement in the Himalayan Region” रिपोर्ट के अनुसार अब एकीकृत हिमालयन एक्शन प्लान की जरूरत है।
जिसमें लोगों की भागीदारी हो और पुराने, बिखरे हुए आपदा प्रबंधन तरीकों की जगह एक ऐसा मल्टी-हजार्ड वार्निंग सिस्टम बने जो सख्त भूमि उपयोग और आजीविका रणनीतियों से जुड़ा हो।
रिपोर्ट के विश्लेषण में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से पिघलते ग्लेशियर, बादल फटने और अत्यधिक वर्षा जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं, जिससे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड और भूस्खलन जैसे खतरे और गंभीर हो गए हैं।
लेकिन असली चिंता यह है कि मानव गतिविधियां - जैसे बिना योजना के निर्माण और संवेदनशील इलाकों में बस्तियों का विस्तार - इन प्राकृतिक खतरों को और बढ़ा रही हैं। नतीजा यह है कि जोखिम का चक्र लगातार मजबूत होता जा रहा है, और उत्तराखंड जैसे राज्यों में मानवीय और आर्थिक नुकसान बढ़ने की आशंका है।
जापान, स्विट्जरलैंड और नॉर्वे जैसे देशों के उदाहरण लेते हुए रिपोर्ट ने हिमालयी क्षेत्र में “ज़ीरो प्रिवेंटेबल डिजास्टर डेथ्स बाय 2030” यानी 2030 तक रोकी जा सकने वाली आपदाओं से होने वाली मौतों को शून्य करने का लक्ष्य रखने की बात कही है।
इसमें सुझाव दिया गया है कि तुरंत, कम लागत वाले रियल-टाइम सेंसर (बारिश, मिट्टी की नमी और झील के जलस्तर के लिए) और मजबूत मोबाइल-आधारित अलर्ट सिस्टम लगाए जाएं, जिन्हें दीर्घकालिक सुधारों - जैसे जोखिम-संवेदनशील भूमि उपयोग योजना और योजनाबद्ध पुनर्वास - से जोड़ा जाए।
रिपोर्ट के मुख्य उद्देश्य
- मल्टी-हैजार्ड अर्ली वार्निंग सिस्टम का ढांचा तैयार करना: एक ऐसा प्रणालीगत और लचीला चेतावनी तंत्र बनाना जो भूस्खलन, अचानक बाढ़, बादल फटना जैसे विभिन्न खतरों से निपट सके। इसमें वास्तविक समय के मौसम, जलविज्ञान और भू-स्थानिक डेटा को स्थानीय समुदायों की प्रतिक्रिया प्रणाली से जोड़ा जाएगा।
- जोखिम में कमी और सतत बसावट की योजना: उच्च जोखिम वाले इलाकों में बस्तियों को नियमित करने, भूमि उपयोग को संतुलित करने और योजनाबद्ध पुनर्वास को लागू करने की रणनीतियां सुझाना, ताकि खतरे का सामना घटे और शहरी व ग्रामीण विकास अधिक जलवायु-सक्षम बन सके।
- सामाजिक और आर्थिक लचीलापन बढ़ाना: ऐसे उपाय पहचानना जो जलवायु-संवेदनशील आजीविकाओं को मजबूत करें, पलायन का दबाव घटाएं और पहाड़ी समुदायों के लिए वैकल्पिक आय और रोजगार के अवसर बनाएं। लक्ष्य है कि तात्कालिक अनुकूलन के साथ-साथ दीर्घकालिक लचीलापन भी सुनिश्चित हो।
- व्यावहारिक बदलाव और मानसिकता में सुधार: हिमालयी आबादी, खासकर उत्तराखंड में, जोखिम को लेकर जो व्यवहारिक चुनौतियां हैं, उनका अध्ययन कर यह सुझाव देना कि कैसे लोगों में प्रोएक्टिव रिस्क परसेप्शन, नियंत्रण की भावना और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना विकसित की जाए। इसमें स्थानीय ज्ञान, सामुदायिक शासन और लक्षित व्यावहारिक संचार को शामिल करने की बात कही गई है, ताकि परिवार और समुदाय स्तर पर तैयारियां और जलवायु कार्रवाई मजबूत हो।
- प्रकृति-आधारित समाधान (Nature-Based Solutions): जंगलों की बहाली, वाटरशेड प्रबंधन, एग्रोफॉरेस्ट्री, वेटलैंड संरक्षण और इकोसिस्टम-आधारित जोखिम न्यूनीकरण जैसे तरीकों को अपनाने की सिफारिश की गई है। ये उपाय न सिर्फ पारिस्थितिक संतुलन को मज़बूत करेंगे, बल्कि मिट्टी और पानी की सुरक्षा, ढलानों की स्थिरता और आजीविका के अवसर भी बढ़ाएंगे।
- ज्ञान आदान-प्रदान और नीति एकीकरण: अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अपनाई गई सफल नीतियों और प्रथाओं का अध्ययन कर, उनसे सीखे गए सबक को हिमालयी संदर्भ में लागू करने की बात कही गई है, ताकि नीति और योजना में ठोस, साक्ष्य-आधारित सुधार लाए जा सकें।
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