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    प्रदूषण को समझने में ज्ञान और विज्ञान दोनों जरूरी

    Updated: Wed, 24 Dec 2025 11:59 PM (IST)

    अधिकतर लोग हवा को आदतों से तौलते हैं, जिससे प्रदूषण का सही आकलन नहीं हो पाता। दिल्ली की हवा को लेकर कई मिथक हैं, जैसे कि यह समस्या केवल दिल्ली तक सीमि ...और पढ़ें

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    हममें से ज़्यादातर लोग हवा को आंखों से तौलते हैं और आदतों के आधार पर समझते हैं। यही वजह है कि प्रदूषण का संकट सामने होने के बावजूद उसका सही आकलन नहीं हो पाता। असली चुनौती यह है कि जब हमें प्रदूषण जैसे मौन हत्यारे से लड़ना होता है, तो मिथक हमारे रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बन जाते हैं। दिल्ली की हवा पर होने वाली चर्चा इसका स्पष्ट उदाहरण है। आम तौर पर यह धारणा बना दी गई है कि खराब हवा केवल दिल्ली की समस्या है, जबकि ऐसा मानना हमें तथ्यों से दूर ले जाता है।

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    यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की AQLI रिपोर्ट साफ बताती है कि इंडो-गैंगेटिक प्लेन, जहाँ करोड़ों लोग रहते हैं, दुनिया के सबसे प्रदूषित इलाकों में से एक है। यही वह हवा है जो लोगों की औसत आयु को वर्षों तक घटा देती है, फिर भी आम बातचीत अक्सर दिल्ली तक ही सिमट जाती है। यह सीमित सोच कई बार नीतियों को भी सही दिशा में आगे बढ़ने से रोक देती है। ऐसे में मिथकों को तोड़ना और हवा को विज्ञान के आधार पर समझना सबसे ज़रूरी कदम बन जाता है।

    उदाहरण के लिए, हम अक्सर मान लेते हैं कि सुबह की हवा सबसे साफ होती है, जबकि ठंडे महीनों में यही समय कई बार सबसे खराब होता है। तापमान कम होने पर प्रदूषक ज़मीन के पास ही जमा रहते हैं और सुबह बाहर निकलने पर हम अनजाने में सबसे अधिक कण अपने भीतर खींच लेते हैं। यही अधूरी समझ आगे चलकर इस सोच में बदल जाती है कि थोड़ी देर बाहर रहने से कोई नुकसान नहीं होता। विज्ञान बताता है कि जब सांसों की रफ्तार बढ़ जाती है खासकर सुबह की सैर या दौड़ के दौरान तो कुछ ही मिनटों में शरीर में पहुँचने वाला प्रदूषण हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा होता है।

    मास्क को लेकर भी गलतफहमियाँ कम नहीं हैं। अक्सर यह मान लिया जाता है कि कोई भी मास्क हवा को छान देता है, जबकि कपड़े या सर्जिकल मास्क केवल बड़े कणों को ही रोक पाते हैं। हवा में मौजूद सूक्ष्म PM2.5 कणों को छानने की क्षमता केवल N95 मास्क में होती है। इसी तरह, घर के भीतर की हवा को सुरक्षित मान लेना भी आधा सच है। रसोई का धुआँ, अगरबत्ती, मोमबत्ती और बाहर की हवा का रिसाव मिलकर अंदर की हवा को भी उतना ही प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे में वेंटिलेशन आदत या अनुमान से नहीं, बल्कि AQI देखकर किया जाना चाहिए।

    एयर प्यूरीफायर को अमीरों का शौक मानना भी एक लोकप्रिय भ्रम है। जबकि सच्चाई यह है कि HEPA प्यूरीफायर, यदि सही तरीके से इस्तेमाल किए जाएँ, तो कमरे में मौजूद PM2.5 को काफी हद तक कम कर सकते हैं। यह सुविधा नहीं, बल्कि स्वास्थ्य को बचाने का एक व्यावहारिक उपाय है।

    इंडोर पौधों को हवा शुद्ध करने वाला साधन मान लेना भी आम चलन है। पौधे वातावरण को सुखद ज़रूर बनाते हैं, लेकिन हवा को वास्तव में साफ रखने के लिए जितनी संख्या में पौधों की ज़रूरत होती है, उन्हें किसी भी कमरे में रखना व्यावहारिक नहीं है। हवा दिखाई नहीं देती, इसलिए हम उसकी गुणवत्ता का अंदाज़ दृश्यता से लगाते हैं—धुंध दिखी तो हवा खराब, साफ दिखी तो हवा ठीक। जबकि सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाले कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे आँखों से दिखाई ही नहीं देते।

    एक और आम धारणा यह है कि फिटनेस हमें प्रदूषण से बचा लेगी। लेकिन व्यायाम के दौरान सांसें तेज हो जाती हैं और हम अधिक प्रदूषण भीतर ले लेते हैं, जिससे शरीर पर उसका प्रभाव और गहरा पड़ सकता है। बच्चों को लेकर भी यही गलतफहमी है कि वे जल्दी अनुकूलन कर लेते हैं। सच यह है कि बच्चे अपने वजन के अनुपात में बड़ों की तुलना में अधिक हवा लेते हैं और प्रदूषण का असर उन पर कहीं अधिक तेजी से पड़ता है।

    हवा को लेकर बने ये मिथक केवल बातचीत को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि हमारी आदतों, हमारे स्वास्थ्य और नीति-निर्माणसभी पर असर डालते हैं। हवा दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका प्रभाव हर सांस के साथ हमारे भीतर दर्ज होता जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम जो दिखाई देता है उस पर नहीं, बल्कि जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है, उस पर भरोसा करें। जब हमारा ज्ञान विज्ञान के साथ मिलकर आगे बढ़ेगा, तभी हम प्रदूषण के खिलाफ असली लड़ाई लड़ पाएंगे।

    (आशीर्वाद एस. राहा, यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (EPIC India) के लिए भारत और दक्षिण एशिया में संचार कार्य का नेतृत्व करते हैं।)