जलवायु परिवर्तन अब पर्यावरण से ही नहीं, अर्थव्यवस्था से भी जुड़ा विषय है: डा. अरुणाभ घोष
जलवायु परिवर्तन पर मंथन शुरू हो गया है। भारत दुनिया के उन शीर्ष 10 देशों में शामिल है, जिन पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है। बीते 20 साल में 80 बिलियन डॉलर का नुकसान हो चुका है। सीईईडब्ल्यू के सीईओ डा. अरुणाभ घोष कहते हैं कि जलवायु अब अर्थव्यवस्था है। काप-30 में भारत दक्षिण एशिया की चुनौतियों को उजागर करेगा और नए निवेशकों की तलाश करेगा।

काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के सीईओ डा. अरुणाभ घोष।
रुमनी घोष, नई दिल्ली। बिहार चुनाव और टैरिफ को लेकर मचे बवाल के बीच जलवायु परिवर्तन पर मंथन शुरू होने जा रहा है। 10 से 21 नवंबर के बीच ब्राजील में होने वाले 30वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन काप-30 में भागीदारी इसलिए अहम है, क्योंकि भारत दुनिया के ऐसे शीर्ष 10 देशों में शामिल है, जिन पर सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है।
आंकड़ों पर गौर करें तो जलवायु परिवर्तन की वजह से बीते 20 साल में 80 बिलियन डॉलर का नुकसान हो चुका है। तभी तो काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के सीईओ डा. अरुणाभ घोष कहते हैं जलवायु अर्थव्यवस्था है। यही नहीं, तथ्यों और आंकड़ों के जरिये इसे साबित भी करते हैं।
मूलतः दिल्ली में ही पले-बढ़े डा. घोष ने सीईईडब्ल्यू को एशिया के अग्रणी नीति अनुसंधान संस्थानों में से एक और दुनिया के 20 सर्वश्रेष्ठ जलवायु थिंक-टैंकों में शीर्ष स्थान पर पहुंचाया है। अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन बनाने में एक प्रारंभिक भूमिका निभाई। 54 देशों में दो दशकों से अधिक के अनुभव के साथ ही उन्होंने प्रिंसटन, आक्सफोर्ड, यूएनडीपी (न्यूयार्क) और डब्ल्यूटीओ (जिनेवा) में काम किया। इस क्षेत्र में आ रहे बदलावों पर निष्कर्षपूर्ण ढंग से काम करने के लिए उन्हें 2022 एशिया गेम चेंजर अवार्ड से सम्मानित किया गया था।
कार्बन उत्सर्जन को कम करने के तय लक्ष्यों के बीच अमेरिका जैसे विकसित देशों की मनमानी, भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के लिए चुनौतियां और उनकी उम्मीदों पर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तृत चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
आप काप-30 में सीईईडब्ल्यू की ओर से भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों का प्रतिनिधित्व करने जा रहे हैं। हमारे लिए यह वैश्विक सम्मेलन क्यों अहम है?
भारत दुनिया के उन 10 शीर्ष देशों में शामिल है, जिन पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है और आने वाले समय में और ज्यादा पड़ेगा। हमारा चिंतित होना स्वाभाविक है।
जलवायु परिवर्तन को लेकर अभी भी वैश्विक स्तर पर दो फाड़ है। एक बड़ा वर्ग इसे चुनौती नहीं बल्कि फैशनेबल विषय मानता है। वहीं दूसरा वर्ग इसे आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती मान रहा है। इस दुविधा को आप कैसे दूर करेंगे?
मेरी नजर में क्लाइमेट चेंज, यानी जलवायु परिवर्तन का एक ही पक्ष है... वह है वर्नरेबिलिटी, यानी नुकसान या हानि के प्रति संवेदनशील होना। जलवायु परिवर्तन अब सिर्फ चिंतन का विषय नहीं है बल्कि अर्थव्यवस्था बन चुका है। जनता और सरकार दोनों ही इस बात को जितनी जल्दी समझ लेंगे, उतने ही बेहतर ढंग से इस दिशा में काम हो सकेगा।
इसकी गंभीरता को आप कैसे परिभाषित करेंगे? सीईईडब्ल्यू के डाटा क्या कहते हैं?
जलवायु परिवर्तन के बारे में आप-हम सभी स्कूल की किताबों में पढ़ते आए हैं, लेकिन अब उन किताबों से निकलकर महसूस करने जैसी स्थिति बन गई है। मैं इसे सरल भाषा में समझाने की कोशिश करता हूं और फिर पाठक खुद तय करें कि यह घटनाएं उनके आसपास घट रही हैं या नहीं। जलवायु परिवर्तन इंसानी गतिविधियों की वजह से हो रहा है और इसकी शुरुआत लगभग 200 साल पहले औद्योगिक क्रांति के बाद से हुई।
इस दौर में दुनियाभर में फासिल फ्यूल्स (जीवाश्म ईंधन जैसे पेट्रोल, डीजल आदि) का उपयोग शुरू हुआ, जिससे निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें हमारे वायुमंडल के ऊपर एक लिफाफा जैसा आवरण बना देती हैं। जब सूरज से निकलने वाली इंफ्रारेड किरणें धरती पर टकराती हैं तो इन आवरणों के कारण किरणें पूरी तरह वापस नहीं जा पाती हैं। इससे धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। धरती पर तापमान बढ़ने से वाष्पीकरण ज्यादा हो रहा है और वाष्पीकरण तेज हो रहा है। वर्तमान में 90 प्रतिशत हीट (तापमान) समुद्र सोख रहा है। कम समयावधि या कम दिनों में बहुत ज्यादा बारिश होने जैसी घटनाएं हो रही हैं।
जलवायु परिवर्तन हमारे लिए किस तरह की चुनौतियां पैदा कर रहा है?
जलवायु परिवर्तन से तापमान वृद्धि, कम समय में अत्यधिक बारिश, चक्रवात, बाढ़, हीट स्ट्रेस, वार्म नाइट्स से कृषि उत्पादन का घटना, मानव स्वास्थ्य पर असर, इंफ्रास्ट्रक्चर नुकसान व विस्थापन जैसी गंभीर समस्याएं जन्म लेती हैं। सीईईडब्ल्यू ने पिछले 30 साल आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि देश के साढ़े चार हजार तहसीलों में से 55 प्रतिशत तहसीलों में बीते 10 सालों में दक्षिण पश्चिमी मानसूनी बारिश बढ़ी है। 11 प्रतिशत तहसीलों में यह घटी है। 40 प्रतिशत जिलों में जहां ज्यादा बारिश होती है, वहां सूखा पड़ रहा है। जहां सूखा रहता था, वहां बारिश होने लगी है। 75 प्रतिशत जिले चरम जलवायु घटनाएं, जैसे बाढ़, सूखा, साइक्लोन जैसी घटनाओं के हॉट-स्पॉट बन चुके हैं, जहां जलवायु परिवर्तन का असर देखा जा रहा है।
हीट स्ट्रेस और वार्म नाइट्स स्वास्थ्य पर किस तरह से असर डाल रहे हैं?
हीट स्ट्रेस में तापमान और नमी मिलकर इस तरह का वातावरण निर्मित करते हैं, जिसमें जितना तापमान होता है, उससे कहीं ज्यादा महसूस होता है। इन दिनों यह समस्या हर जगह हो रही है। उदाहरण के लिए तापमान तो 29 डिग्री सेल्सियस होगा, लेकिन महसूस होगा कि 36-37 डिग्री तक। ...और वार्म नाइट में दिन और रात में तापमान का अंतर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। हमारे शरीर के अंगों को आराम देने के लिए दिन और रात के तापमान के बीच एक खास अंतर होना चाहिए। यह अंतर कम होने से शरीर के अंगों को पूरी तरह आराम नहीं मिल पा रहा है और इसका असर लोक स्वास्थ्य व पूरे समाज के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
आप कहते हैं जलवायु परिवर्तन अर्थ व्यवस्था का विषय है। क्यों और कैसे?
देश की कुल आबादी का 80 प्रतिशत लोग उन इलाकों में रह रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के लिए बेहद संवेदनशिल हो चुके हैं। बाढ़, साइक्लोन, तेज बारिश, बाढ़ आदि घटनाओं की वजह से इंफ्रास्ट्रक्चर को भारी मात्रा में नुकसान हो रहा है। इस बार हमने उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश औऱ जम्मू-कश्मीर में इन घटनाओं को देखा है। एक रिपोर्ट के अनुसार इंफ्रास्ट्रक्चर के गिरने या टूट-फूट की वजह से बीते 20 सालों में भारत में 80 बिलियन डालर का नुकसान हुआ है। वहीं सालाना पांच-छह बिलियन डालर का नुकसान हो रहा है। वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 250-300 बिलियन डालर है। चिंता की बात यह है कि जो नुकसान हो रहा है, उसमें से 50 प्रतिशत का बीमा नहीं है। जो आपदाएं हो रही हैं, उसमें से 65 प्रतिशत से अधिक मामलों में आर्थिक नुकसान का आकलन ही नहीं करवाया जा रहा है।
अमेरिका जैसे विकासशील देश ने तो जलवायु परिवर्तन के निवेश व पेरिस एग्रिमेंट से खुद को अलग कर लिया है। जब प्रदूषण फैलाने वाले देश ही इसमें भाग नहीं लेंगे तो क्या फायदा ?
यह बड़ी विसंगति है अमेरिका ने पेरिस एग्रिमेंट से खुद को अलग कर लिया है। इससे गति धीमी पड़ी है लेकिन इसके आधार पर हम अपने प्रयासों को तो नहीं रोक सकते हैं। उदाहरण के लिए, आप किसी सड़क पर गाड़ी चला रहे हैं और बाकी लोग ट्रैफिक रूल्स फालो नहीं कर रहे हैं तो क्या करेंगे। आप तो नियमों का पालन करते हुए आगे बढ़ेंगे न। यही इसमें करना है और करना पड़ेगा। हम यह सोचकर नहीं बैठ सकते हैं कि अमेरिका या अन्य कोई विकसित देश यदि कोई काम नहीं कर रहा है तो हम भी नहीं करेंगे।
जी-7 देशों ने डेढ़ साल पहले फासिल फ्यूल के उपयोग को बंद करने का लक्ष्य 2035 कर दिया। पहले उनका लक्ष्य था 2030 था। इसका असर यह पड़ेगा कि यह सारे देश मिलकर पांच साल में चार बिलियन टन कार्बन स्पेस खा जाएंगे। यह भारत जैसे देश के एक साल का कार्बन उत्सर्जन स्पेस है। यही नहीं, इनकी उदासीनता की वजह से छोटे द्वीपीय राष्ट्रों को भी बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। जबकि पर्यावरणीय दृष्टिकोण के लिहाज से ये सभी द्वीप जलवायु जोखिम के लिए सबसे कम जिम्मेदार होते हैं।
काप-30 में आप क्या-क्या मुद्दे उठाएंगे?
तीन मुद्दे उठाना चाहता हूं। पहला, दक्षिण एशिया में हर देश के लिए जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां अलग-अलग हैं। नेपाल-भूटान में पहाड़ी इलाकों की चुनौतियां हैं। बंगाल, बांग्लादेश व श्रीलंका का समुद्र तटीय इलाका, मालदीव की अपनी अलग चुनौतियां हैं। इन सभी पर एक रिपोर्ट तैयार की जा रही है, ताकि दुनिया को पता चले कि हम किस तरह की परेशानियों से जूझ रहे हैं। दूसरा, इन चुनौतियों से निपटने के लिए भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया में काम क्या हो रहा है, यह भी सबके सामने रखेंगे। तीसरा, नए पार्टनर की तलाश। स्टील, सीमेंट, ट्रांसपोर्ट, सौर पावर, सोलर इरिगेशन, कृषि आदि क्षेत्र में नए निवेशकों को तलाशना होगा।
अपेक्षाएं और लक्ष्य क्या-क्या हैं?
पश्चिम देशों द्वारा ग्लोबल साउथ में किए जा रहे प्रयासों को सराहा नहीं जा रहा है। ग्रीन एनर्जी, सोलर पावर, रिनुअल एनर्जी, ग्रीन टेक्नोलाजी के क्षेत्र में काफी काम हुआ है, लेकिन इन्हें वह पहचान नहीं मिल पा रही है, जो मिलनी चाहिए। काप-30 के जरिए हम दुनिया को इन सभी कामों के बारे में बताएंगे। इसको लेकर हम रिपोर्ट भी तैयार कर रहे हैं। इन प्रयासों के आधार पर हमारे यहां निवेश आए। हमारी अपेक्षा रहेगी कि ग्लोबल साउथ में किए जा रहे प्रयासों को मान्यता मिले और उस मान्यता के आधार पर और निवेश आए। इस क्षेत्र में काम को गति देना और तेजी से आगे बढ़ना इस बात पर निर्भर है कि देश के भीतर और बाहर दोनों जगहों से ही साधन आए।
जलवायु परिवर्तन को लेकर सबसे बेहतर काम कौन-सा देश कर रहा है?
सभी देश किसी न किसी क्षेत्र में बेहतर काम कर रहे हैं। बीते साल जी-20 देशों के कामों का आकलन किया था। उसमें रिनुअल एनर्जी में चीन ने बेहतर काम किया। अब भारत भी प्रथम तीन में है। यूके, यूएई में भी काम हो रहा है। अमेरिका में भी काम हो रहा था, लेकिन पेरिस अनुबंध से खुद को हटाने के बाद अभी वहां काम बहुत धीमा हो गया है।

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