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    कभी बिकने की कगार पर था गूगल, याहू ने खरीदने से क्यों किया मना?

    Updated: Wed, 04 Sep 2024 10:00 AM (IST)

    गूगल की नींव 4 सितंबर 1998 में पड़ी थी। इसका ऑफिशियली लॉन्च से पहले नाम Backrub था जिसे बाद में गूगल किया गया। गूगल आज टेक्नोलॉजी की दुनिया का बेताज ब ...और पढ़ें

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    याहू उस वक्त सबसे बड़ा सर्च इंजन था।

    बिजनेस डेस्क, नई दिल्ली। आपसी बातचीत के दौरान आप अक्सर एक वाक्य सुनते होंगे, 'गूगल कर लो।' इससे जाहिर होता है कि एक टेक कंपनी ने हमारी जिंदगी में कितनी गहरी पैठ बना ली है। लेकिन, गूगल कभी बिकने की कगार पर थी, वो भी एक नहीं दो दफा। अगर वह डील हो जाती, तो आज हम शायद गूगल की जगह 'याहू कर लो' कह रहे होते।

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    गूगल की नींव 4 सितंबर 1998 में पड़ी। इसके शिल्पकार दो लोग थे, लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन। उन्हें टेक्नोलॉजी की दुनिया का कोई खास तजुर्बा नहीं था। वे अपने छोटे से स्टार्टअप को याहू के हाथों बेचना चाहते थे, ताकि वे स्टैनफोर्ड में अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू कर सकें। उन्होंने सौदे की कीमत रखी, 1 मिलियन डॉलर।

    याहू ने गूगल को क्यों नहीं खरीदा?

    याहू को यह सौदा उस वक्त महंगा लगा। उसने लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन की पेशकश को ठुकरा दिया। लैरी और ब्रिन जिस कंपनी को बेचना चाहते थे, वह जल्द ही पेटेंट होने वाली पेजरैंक प्रणाली थी और यहीं से शुरुआत होने वाली थी तकनीक दुनिया को बदलने वाले गूगल की।

    याहू उस वक्त सबसे बड़ा सर्च इंजन था। वह चाहता था कि यूजर उसके प्लेटफॉर्म पर अधिक वक्त बिताएं। वहीं, पेजरैंक सिस्टम इसके ठीक उलट था। वह यूजर के सर्च के हिसाब से सबसे प्रासंगिक साइट को चुनकर सामने ला देता। अब यूजर की मर्जी होती कि वह किस साइट पर जाना चाहता है। इस वजह से भी उसने गूगल को खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखाई।

    याहू को गलती का अहसास हुआ

    याहू को चार साल बाद अहसास हुआ कि उसने गूगल को न खरीदकर गलती की। इसे सुधारने के लिए 2002 में याहू के तत्कालीन सीईओ टेरी सेमल ने गूगल को खरीदने की पहल की। इस सिलसिले में महीनों तक दोनों कंपनियों के बीच बातचीत चली। लेकिन, यहां भी डील फाइनल नहीं हो पाई। दरअसल, याहू 3 बिलियन डॉलर ऑफर कर रहा था, जबकि गूगल 5 बिलियन डॉलर चाहता था।

    इस डील को ठुकराने के साथ याहू के बुरे दौर की शुरुआत भी हो गई। वहीं, दूसरी ओर गूगल के यूजर की संख्या दिन ब दिन बढ़ने लगी। जीमेल जैसी सर्विसेज ने भी उसकी लोकप्रियता को बढ़ाया। उसने नवंबर 2007 में एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम लाकर एक नए युग की शुरुआत कर दी। इस ऑपरेटिंग सिस्टम ने मोबाइल चलाने का पूरा तरीका ही बदल दिया।

    गलती पर गलती करता गया याहू

    याहू का कारोबार लगातार घटता रहा, क्योंकि वह इनोवेशन के मामले में गूगल से काफी पिछड़ चुका था। कहां वो गूगल को खरीदने की बात कर रहा था, कहां खुद उसका कारोबार बिकने की नौबत आ गई। साल 2008 में माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन ने याहू को 44.6 बिलियन डॉलर में खरीदने का प्रस्ताव दिया। माइक्रोसॉफ्ट का ऑफर याहू के पास आखिरी मौका था गूगल को टक्कर देने का। लेकिन, उसने इसे भी ठुकरा दिया। आखिर में याहू को अमेरिका की वेरिजोन टेलीकम्युनिकेशंस ने 2016 में खरीदा। और यह सौदा 5 बिलियन डॉलर से भी कम में हुआ।

    एक पुरानी भारतीय कहावत है, 'सौभाग्य हर किसी का दरवाजा कम से कम एक बार जरूर खटखटाता है'। लेकिन, सौभाग्य ने याहू का दरवाजा एक नहीं, कई बार खटकाया। लेकिन, यह शायद गूगल की अच्छी तकदीर थी कि याहू ने अपने सौभाग्य का स्वागत करने के लिए कभी दरवाजा नहीं खोला। और याहू क गलती गूगल के लिए अपनी बादशाहत कायम करने का मौका बन गई।

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