जंगल में भटके, लकड़ियां ढूंढी... ऐसे बनी थी पहली पेंसिल; 3 दोस्तों ने ताने सह कैसे बनाई 500 करोड़ की कंपनी?
1950 के दशक में तीन दोस्तों ने नटराज पेंसिल (Nataraj Pencil Success Story) बनाने का फैसला किया, तब लोगों ने उनका मजाक उड़ाया। विदेशी पेंसिलों का दबदबा था और अच्छी पेंसिलें नहीं थीं। दोस्तों ने जर्मनी से तकनीक सीखी, चिनार की लकड़ी खोजी और 1958 में नटराज पेंसिल लॉन्च की।

नटराज ब्रांड केवल स्टेशनरी नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के बचपन की मीठी यादें हैं।
नई दिल्ली। भारत में पेंसिल का नाम आते ही नटराज और अप्सरा सबसे पहले याद आते हैं। ये ब्रांड केवल स्टेशनरी नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के बचपन की मीठी यादें हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस कंपनी की शुरुआत संघर्ष, जिद और नवाचार की ऐसी कहानी है, जिसे सुनकर प्रेरणा मिलती है। जब 1950 के दशक में तीन दोस्तों बी जे सांगवी, रामनाथ मेहरा और मनसुकानी ने पेंसिल बनाने का निर्णय लिया, तब लोग हंसते थे। सवाल उठता था कि क्या पेंसिल बनाकर करोड़पति बनोगे?
विदेशी पेंसिलों का दौर और भारतीय बाजार की कमी
आजादी के बाद भारत में पढ़ने वाले बच्चों के पास अच्छी पेंसिल तक नहीं थी। अंग्रेजी, जर्मन और जापानी कंपनियों जैसे एडब्ल्यू फेबर कैसटेल (AW Faber Castell), मत्सुबिशी पेंसिल (Mitsubishi Pencil), स्टैड्टलर (Staedtler) का वर्चस्व था। भारतीय पेंसिलें सस्ती तो थीं, लेकिन गुणवत्ता बेहद कमजोर थी। भारतीय ब्रांड का मतलब तब लो-क्वालिटी समझा जाता था।
बी जे सांगवी का सपना और संघर्ष
गरीबी के कारण इंजीनियर बनने का सपना अधूरा रह गया। लेकिन बी जे सांगवी ने बच्चों को अच्छी, सस्ती पेंसिल उपलब्ध कराने का निश्चय किया। समस्या यह थी कि गुणवत्ता वाली लकड़ी और ग्रेफाइट भारत में उपलब्ध ही नहीं थे। इसलिए तीनों दोस्त जर्मनी गए, वहीं की मशीनें, तकनीक और उत्पादन प्रक्रिया सीखी।
भारत लौटकर महीनों जंगलों में घूमकर उन्होंने पॉपलर वुड (चिनार) ढूंढी, जो अमेरिकी सीडर का सस्ता और बेहतरीन विकल्प साबित हुई। स्थानीय शोधकर्ताओं की मदद से उन्होंने बेहतर ग्रेफाइट फार्मूला तैयार किया। मशीनें बहुत महंगी थीं, इसलिए भारतीय इंजीनियरों और कारपेंटर्स के साथ मिलकर जुगाड़ तकनीक से मशीनें खुद बनाईं। कई रातें बिना नींद की गोली के सोना मुश्किल हो जाता था, लेकिन हार नहीं मानी।
1958 में हिंदुस्तान पेंसिल्स लिमिटेड की शुरुआत
1958 में कंपनी ने नटराज 621 HB पेंसिल लॉन्च की। मजबूत, स्मूथ और भारतीय मौसम के हिसाब से टिकाऊ। कीमत भी बेहद किफायती रखी गई। लेकिन समस्या थी कि लोग "Made in India" उत्पाद पर भरोसा ही नहीं करते थे।

स्कूलों में फ्री सैंपल बना गेम चेंजर कदम
दुकानदार विदेशी ब्रांड छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब कंपनी ने स्कूलों और कॉलेजों में मुफ्त सैंपल बांटना शुरू किया। छात्रों को तुरंत डार्क, स्मूथ ग्रेफाइट, मजबूत लीड और डस्ट-फ्री इरेजर का फर्क दिखाई दिया। 1970 तक नटराज देश की सबसे ज्यादा बिकने वाली पेंसिल बन गई।
अप्सरा ब्रांड का उदय
प्रोफेशनल आर्टिस्ट और डिजाइनर्स के लिए 1970 में लॉन्च हुआ। अप्सरा अधिक स्मूथ, डार्क और मजबूत होने की वजह से जल्द ही आर्टिस्ट्स की पसंद बन गया और कंपनी ने वैश्विक बाजार में भी एक्सपोर्ट शुरू कर दिए।

1991 में लिबरलाइजेशन का झटका और नया मोड़
विदेशी ब्रांड भारत में आए, लेकिन हिंदुस्तान पेंसिल्स घबराया नहीं। उन्होंने नवाचार किया और डस्ट-फ्री इरेजर, बेहतर शार्पनर, बॉल पेन, जेल पेन, क्रेयॉन्स और कलर पेंसिल्स लॉन्च किए।
कंपनी के यादगार टीवी विज्ञापन में ''चलती ही जाए'' और ''द विनिंग रेस'' घर-घर में लोकप्रिय हुए। अप्सरा एग्जाम पेंसिल मार्केटिंग का मास्टरस्ट्रोक है।
कंपनी ने माता-पिता और एग्ज़ाम देने वाले छात्रों को टारगेट किया। विज्ञापन में दिखाया गया कि अप्सरा एग्जाम पेंसिल से लिखने पर हैंडराइटिंग इतनी साफ होती है कि टीचर अतिरिक्त अंक देते हैं। यह कैंपेन बेहद सफल रहा।
2013 में स्किन कलर विवाद
क्रेयॉन्स सेट में "स्किन कलर" को लेकर भेदभाव का आरोप लगा। सोशल मीडिया अभियान “Not My Skin Colour” के बाद कंपनी ने तुरंत इसका नाम बदलकर पीच कर दिया। बदलाव की सराहना हुई।

आज कंपनी भारतीय स्टेशनरी बाजार का बादशाह
आज हिंदुस्तान पेंसिल्स भारतीय ब्रांडेड स्टेशनरी मार्केट का 65% मार्केट शेयर रखता है। कंपनी रोज 80 लाख पेंसिल्स, 15 लाख शार्पनर्स, 25 लाख इरेजर और 10 लाख पेन बनाती है। कंपनी 31 मार्च 2024 के फाइनेंशियल आकड़ों के मुताबिक ऑपरेटिंग रेवेन्यू 500 करोड़ रुपये है। यह कंपनी शेयर बाजार में लिस्ट नहीं है।

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