मकर संक्रांति पर खिचड़ी संग आता था मां का प्यार; चने की साग घोलती नेह का स्वाद, कहां गुम हुई शहाबाद की ये परंपरा?
एक समय था जब खिचड़ी सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि मां के प्यार का प्रतीक थी। चने की साग से स्वाद और भी बढ़ जाता था। पर अब, शाहाबाद की यह परंपरा गुम होती जा र ...और पढ़ें

घरों में बनने की जगह अब बाजारों में बिकती खिचड़ी से जुड़ी सामग्री। जागरण
प्रमोद टैगोर, संझौली (रोहतास)। बिटिया की आंचल में दाल चावल बांधकर डबडबाई आंखों से जब मां कहती है, ' ससुराल जा रही हो न मेरी धिया! मैंने तुम्हें अपने हृदय के सम्पूर्ण नेह के साथ जो खिचड़ी सौंपी है, तुम अपने ससुराल जाकर इसे पकाना।
जैसे खिचड़ी में दाल चावल घुल मिल जाते हैं, तुम भी वैसे ही ससुराल में सबके साथ हिल मिल कर रहना।' मां की वात्सल्यमयी हिदायत पर बेटी के होंठ थरथराने लगते हैं और आंसू की बूंदे गालों पर लुढ़कने लगती है।
बेटी और मां के बीच यह भावनात्मक जुड़ाव खिचड़ी की परंपरा को मजबूत बनात था। एक मां के लिए यही तो मकर संक्रांति और खिचड़ी थी।
मकर संक्रांति पर बहू-बेटियों के ससुराल या मायके में खिचड़ी (चावल, दाल, साग सब्जियां, तिलकुट, लाई, कसार, दही, चुड़ा ) के साथ साड़ी, सिंदूर और अन्य शृंगार सामग्री जैसे उपहार भेजने की यह परंपरा धान के कटोरे शाहाबाद की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
यह दो कुलों की पारिवारिक रिश्तों को गहरा बनाती थी और रिश्तों में मिठास घोलती थी। आज आधुनिकता व भाग दौड़ की जिंदगी इस परंपरा पर ग्रहण लगती जा रही है।
हालांकि गिने-चुने लोग बहन-बेटियों को खिचड़ी तो भेज रहे हैं, परंतु वे भी रेडीमेड व्यवस्था से काम चला रहे हैं। अब यह परंपरा दादी के ख्यालों तक सिमटती नजर आ रही है।
लोग इस परंपरा को फोन पर बात करके या गिफ्ट वाउचर भेजकर काम चला लेते हैं। मायके और ससुराल के बीच प्यार और रिश्तों में मिठास घोलती इस परंपरा से अगली पीढ़ी भी अंजान बनती जा रही है।
खिचड़ी परंपरा को याद कर भावुक हो जाती हैं बुजुर्ग महिलाएं
खिचड़ी परंपरा को याद कर बुजुर्ग महिलाएं भावुक हो जाती है। उदयपुर की 75 वर्षीया राजकुमारी कुंअर बताती हैं कि मकर संक्रांति से एक पखवारे पूर्व से मायके से खिचड़ी आने को ले मन में भावनात्मक जुड़ाव हिलोरें लेने लगता था।
हमारे यहां पिताजी ही खिचड़ी लेकर आते थे। उनकी मृत्यु के बाद यह सिलसिला बंद हो गया। 74 वर्षीया शांति कुंअर कहती है कि खिचड़ी के उपहार में मायके का स्नेह और आशीर्वाद हुआ करता था।
मां, भाभी और आस पड़ोस की महिलाएं मिलकर जो लाई, कसार बांधती थी, उस उपहार में सबका स्नेह बसता था। खिचड़ी आने के बाद ससुराल में पूरे मुहल्ले में बायन के रूप में उसे बांटा भी जाता था।
खिचड़ी के साथ ससुराल के सदस्यो के कपड़े आते थे। चना के साग तो जरूर आते थे। सुसाडी की गंगोत्री देवी बताती हैं कि इंतजार इतना रहता था कि किसी की आवाज आने पर घर के मुख्य दरवाजे तक दौड़ कर जाती थी और देखती थी। मुहल्ले की महिलाएं जब जुटती थी, तो अपने अपने मायके से आई खिचड़ी की बात बड़े ही गर्व से एक दूसरे से शेयर करती थी।
विद्वान माधो मिश्रा की 80 वर्षीय पत्नी शांति मिश्रा की आंखें खिचड़ी को याद कर डबडबा जाती है। कहती हैं, जब गाड़ी नहीं मिलती थी, तो बाबूजी डिहरी से पैदल चलकर ही खिचड़ी लाते थे।
रिश्तों में खटास की वजह परंपरा को अनदेखा करना
प्रो. संतोष कुमार कहते हैं, आजकल रिश्तों में खटास की वजह परंपरा को अनदेखा करना भी है। आज बेटी की शादी के बाद ही कई के ससुराल और मायके में खटास आ जाती है।
इसके पीछे शादी में मनचाहा सामान और दहेज का न मिलना मुख्य वजह बनती है। कई दहेजलोभी अब तो बहके घर से आए उन उपहार को लौटाने में तनिक देर नहीं करते हैं।
थाने और कोर्ट तक मामलों की भरमार है और रिश्ते तलाक तक पहुंच टूट रहे हैं। पहले यदि थोड़ी बहुत खटास भी रहती थी, तो खिचड़ी पहुंचने के बाद ससुराल और मायके के लोगों के बीच के सारे गिले शिकवे खत्म हो जाते थे।
आचार्य शिवजगत मिश्रा के अनुसार, बेटियों को खिचड़ी भेजने की परंपरा मकर संक्रांति से जुड़ी है। खासकर बिहार व झारखंड में बेटी-बहू के ससुराल में स्नेह और सम्मान के प्रतीक के रूप में भेजा जाता है।
इसमें दाल-चावल के साथ साड़ी, श्रृंगार सामग्री, चूड़ा, तिलवा आदि भी होते हैं, जो रिश्तों की मजबूती के साथ आपसी प्रेम को दर्शाते हैं। यह सदियों पुरानी प्रथा है।

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