साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र थे राजा राधिकारमण
जब वक्त गुजर जाता है तो याद बनती है, किसी बाग की खुशबू निकल जाए तो फिजां फूल खिलन ।
रोहतास । जब वक्त गुजर जाता है तो याद बनती है, किसी बाग की खुशबू निकल जाए तो फिजां फूल खिलने की फरियाद करती है। इसी तरह आज साहित्य नगरी सूर्यपुरा का स्वर्णिम अतीत सिर्फ यादों में ही सिमटकर रह गया है। साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र राजा राधिकारमण प्रसाद ¨सह का गढ़ आज भले ही रख रखाव के अभाव में खण्डहर में तब्दील होने लगा हो, परंतु लाहौरी ईंटों से बना यह किला आज भी राजा साहब की याद को ताजा करता है।
राजा राधिका रमण का जन्म बिहार प्रांत के तत्कालीन शाहाबाद एवं वर्तमान रोहतास जिले के सूर्यपुरा के एक कायस्थ कुल परिवार में 10 सितंबर 1890 को हुआ था। पिता राज राजेश्वरी प्रसाद ¨सह (प्यारे कवि) व माता शकुंतला देव के आंगन में खिलने वाला यह पुष्प आगे चलकर पूरे हिन्दी साहित्य जगत को अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से समृद्ध व सुशोभित किया। इनके परिवार में साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा रही है। इनके परिवार में मंजरी जरूहार बिहार की प्रथम आईपीएस रहीं, जो हंटरवाली के नाम से चर्चित थीं।
राजा साहब की प्रारंभिक शिक्षा घर में ही पंडित और मौलवी की देखरेख में शुरू हुई। 1903 में आरा जिला स्कूल में प्रवेश पाए। 1907 में सेंट जेबियर्स कॉलेज कौलकाता के छात्र बने। बंग-भंग आंदोलन में कार्य करने तथा श्री अर¨वद जी से प्रभावित होने के कारण जिलाधीश के आदेश से उन्हें बंगाल छोड़ना पड़ा। 1912 में बीए पास किए और संस्कृत में स्वर्ण पदक प्राप्त किए। 1914 में इतिहास से एमए की डिग्री हासिल की। पिता की मृत्यु के बाद कोर्ट ऑफ बाडर्स द्वारा 1918 में संपूर्ण रियासत का भार सौंपा गया। 1920 में एक जनवरी को 'राजा' की उपाधि से विभूषित। 1922 से 1928 तक शाहाबाद डिस्ट्रीक्ट बोर्ड के प्रथम भारतीय चेयरमैन रहे तथा 1933 से 1940 तक हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष भी रहे।
राजा जी का साहित्यिक जीवन 1935 से प्रारंभ हुआ। तब से वे सरस्वती की एकांत साधना में संलग्न हो गए। उनका पहला उपन्यास 'राम-रहिम' है। इसके बाद गांधी टोपी, सावनी समां, पुरूष और नारी, हवेली और झोपड़ी, अब और तब, बिखरे मोती, चुम्बन और चाटा सहित कई अन्य उत्कृष्ट रचनाओं से पूरे साहित्य जगत में अपनी अपनी लेखनी का लोहा मनवाया। 1950 से 1969 तक राष्ट्र्भाषा परिषद के सदस्य रहे। 1956 से 1964 तक साहित्य अकादमी दिल्ली के भी सदस्य रहे।
राजा साहब साहित्य के लिए जितने संवेदनशील थे, उतने ही मानवता के लिए भी थे। 1962 में उन्हें हिन्दी उत्कृष्ट सेवा के लिए 'पद्मभूषण' की उपाधि से सम्मानित किया गया।
1965 में बिहार राष्र्ट्र भाषा परिषद द्वारा व्योवृद्ध साहित्यिक पुरस्कार, प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन 1970 में 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से नवाजे गए। इस महान साहित्यकार ने साहित्य की धरती पर लगभग छह दशकों तक जो अमूल्य निधि बरसाई, यह साहित्यकार वास्तव में एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक आंदोलन था, जो अंधकार के युग में अपनी लेखनी की जादुई किरण बिखेरता हुआ 24 मार्च 1971 को इस दुनियां को अलविदा कह गया। आज भी उनकी याद में हर वर्ष 10 सितंबर को धूमधाम से राज राजेश्वरी उच्च विद्यालय में जयंती मनाई जाती है, परंतु दुर्भाग्यपूर्ण की बात यह है कि इस महान साहित्यकार के नाम पर न तो आजतक यहां स्मारक बन सका, न ही कोई प्रतिमा स्थापित की जा सकी।
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