जॉर्ज के बिना आसान नहीं था नीतीश का सफर, तोड़ दिया था मिथक 'लालू अपराजेय हैं'
जॉर्ज फर्नांडिस के बिना बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राह आसान नहीं थी। दोनों ने साथ मिलकर यह मिथक तोड़ दिया था कि लालू अपराजेय हैं। जॉर्ज और नीतीश की कहानी, जानिए...
पटना [अरुण अशेष]। मुख्यमंत्री की हैसियत से जब लालू प्रसाद बीस साल तक राज करने की बात कर रहे थे, उस दौर वे अपराजेय मान लिए गए थे। लालू के शासन के तीसरे साल में जब जॉर्ज फर्नांडीस ने उन्हें सत्ता से बेदखल करने का एलान किया तो किसी को भरोसा नहीं हो रहा था कि जमीनी सचाई को जानने वाले जॉर्ज आखिर क्या बोल रहे हैं। रही सही कसर 1995 के विधानसभा चुनाव ने पूरी कर दी।
लालू को बेदखल करने के इरादे से चुनाव लड़ी समता पार्टी सात सीटों पर सिमट गई तो यही कहा गया कि जॉर्ज और उनके लोग घर बैठ जाएंगे। ऐसा हुआ नहीं।
पराजय के बाद जॉर्ज और नीतीश कुमार ठोस रणनीति के साथ मैदान में आए। भाजपा से दोस्ती की। 2000 आते-आते लालू प्रसाद की सत्ता को चुनौती मिल चुकी थी। सात दिनों के लिए ही सही नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन चुके थे। ...और यह मिथ टूट गया था कि लालू अपराजेय हैं।
यह परिस्थिति कैसे बनी? बेशक मोर्चे पर नीतीश थे। लेकिन, जॉर्ज तन और मन से लगे हुए थे। जनता दल के 14 सांसदों को एक मंच पर लाकर पहले जनता दल में विभाजन किया गया। जनता दल जॉर्ज बना।
बाद में समता पार्टी बनी। नीतीश कुमार में उन्हें संभावना दिख गई थी। इसलिए उन्होंने नीतीश को आगे रखकर समता पार्टी को बढ़ाया। किसी को नीतीश कुमार का शासन आसान लग सकता है। लेकिन, यहां तक का उनका सफर जॉर्ज के बिना संभव नहीं था।
1994 की बात है। भाकपा, माकपा, झामुमो, माक्र्सवादी समन्वय समिति और निर्दलियों की मदद से लालू प्रसाद की सरकार चल रही थी। रामसुंदर दास के साथ रह कर विरोध करने वाले तमाम नेता लालू कैबिनेट में मंत्री बन चुके थे। उसी दौर में जॉर्ज-नीतीश ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लौट रहे थे।
तुर्की के पास उनके काफिले पर हमला हो गया। किसी को शारीरिक क्षति नहीं हुई। गाडिय़ों को नुकसान हुआ। मंत्रिमंडल के दो सदस्यों का सिर्फ मुंह खुला। श्रम मंत्री बशिष्ठ नारायण सिंह और स्वास्थ्य मंत्री सुधा श्रीवास्तव ने घटना की आलोचना की।
इतना ही नहीं, जिस दिन गांधी मैदान में जनता दल जॉर्ज के गठन के लिए रैली हो रही थी, दोनों मंत्री कैबिनेट और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर सभास्थल पर पहुंच गए। यह जॉर्ज की बड़ी नैतिक विजय थी। 1995 के विधानसभा चुनाव की पराजय के बाद जॉर्ज को लग गया था कि अकेले लालू प्रसाद का मुकाबला संभव नहीं है। उसी समय भाजपा से दोस्ती का विचार आया।
अगले साल के लोकसभा चुनाव में समता का गठबंधन भाजपा के साथ हो गया। लोकसभा चुनाव के बाद 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुआ। भाजपा-समता चार सीट जीत गई थी। 10 में चार, यह उम्मीद जगाने वाला परिणाम था। 1997 में जनता दल में एक और विभाजन हुआ।
लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया। शरद यादव जनता दल में रह गए। इधर, एनडीए का कारवां बढ़ रहा था। 2000 तक राजद के विरोध में एक ठोस गोलबंदी शक्ल ले चुकी थी। सात दिनों की नीतीश सरकार राजद विरोधियों का हौसला बढ़ा गई।
2005 के फरवरी वाले विधानसभा चुनाव के बाद साझे में चुनाव लड़े लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान अड़ गए कि वे लालू प्रसाद के परिजन को मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं करेंगे। उसी साल नवम्बर में नीतीश की अगुआई में जो सरकार बनी, वह संक्षिप्त अवधि को छोड़ कर अबतक कायम है। थोड़े समय के अलगाव के बाद जदयू फिर एनडीए का अंग है।
-क्यों बे टिकट हुए थे जॉर्ज
2009 में जदयू के टिकट से क्यों बेदखल हुए? इस मुददे की बड़ी चर्चा होती है। नीतीश के विरोधी आरोप लगाते हैं कि उन्होंने जॉर्ज की आखिरी इच्छा का सम्मान नहीं किया। इससे पहले 2006 में जदयू की अध्यक्षता का विषय आया तो उस समय भी नीतीश ने जॉर्ज की दावेदारी को खारिज कर शरद यादव को अध्यक्ष बनवा दिया।
नीतीश ने कभी इन दोनों विषयों पर आधिकारिक तौर पर अपनी राय सार्वजनिक नहीं की। लेकिन, घटनाक्रम को करीब से जानने वाले लोग बताते हैं कि जॉर्ज के बदले शरद का अध्यक्ष बनना अपरिहार्य था। जनता दल यू एक ही विचार का दो समूह काम कर रहा था। जनता दल और समता पार्टी।
समता से आए नीतीश मुख्यमंत्री बन गए थे। अध्यक्ष का पद भी इस समूह को मिलता तो मूल जनता दल वालों की नाराजगी बढ़ती। इसे रोकने के लिए ही नीतीश ने शरद का साथ दिया। 2009 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज को बेटिकट करने का मसला भी जब तब उभर जाता है।
उस समय शरद यादव ने जॉर्ज को एक पत्र लिखा था। इसमें जॉर्ज की बीमारी और उम्र का जिक्र है। आग्रह है कि सेहत को देखते हुए आपका चुनाव लडऩा ठीक नहीं होगा। चुनाव मत लडि़ए। राज्यसभा में बिहार से जो पहली वैकेंसी होगी, वह आपसे भरी जाएगी। रोकने के बाद भी जॉर्ज मुजफ्फरपुर से लड़े। सिर्फ 22 हजार वोट आया। यह उनके जीवन का आखिरी चुनाव था।

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