स्कूल जाने वाले 70 प्रतिशत स्टूडेंट्स की आंखों में समस्या, 22 प्रतिशत बच्चों ने पहना है गलत पावर का चश्मा
प्रदेश में 4.56 लाख से अधिक बच्चे अपवर्तक दोष से पीड़ित हैं। स्कूल जाने वाले 70 प्रतिशत बच्चे किसी ने किसी नेत्र समस्या से ग्रस्त हैं जबकि बिहार-झारखंड के 0.2 प्रतिशत बच्चे अंधेपन की चपेट में हैं। ऐसे में बच्चा बार-बार आंखें मिचमिचाए पढ़ने में झिझके सिर व आंखों में दर्द की बात कहे तो इसकी अनदेखी नहीं करें।

जागरण संवाददाता, पटना। बच्चा, बार-बार आंखें मिचमिचाए, पढ़ने में झिझके, सिर व आंखों में दर्द की बात कहे तो इसकी अनदेखी नहीं करें। यह नेत्र संबंधी सबसे प्रमुख समस्या अपवर्तक यानी रिफ्रैक्टिव दोष के कारण हो सकता है। इसमें बच्चा साफ-साफ नहीं देख पाता है।
अखंड ज्योति आई हास्पिटल के स्क्रीनिंग कार्यक्रम के अनुसार प्रदेश में 4.56 लाख से अधिक बच्चे अपवर्तक दोष से पीड़ित हैं। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार स्कूल जाने वाले 70 प्रतिशत बच्चे किसी ने किसी नेत्र समस्या से ग्रस्त हैं जबकि बिहार-झारखंड के 0.2 प्रतिशत बच्चे अंधेपन की चपेट में हैं।
इनमें से अधिसंख्य का उपचार एक चश्मे से हो सकता है लेकिन किसी विशेषज्ञ डाक्टर से जांच करा कर ही चश्मे का नंबर लेना चाहिए। चश्मा दुकानों पर मशीनों से की गई जांच के आधार पर बने चश्मे पहनने के कई बार गंभीर परिणाम सामने आते हैं। आइजीआइएमएस स्थित क्षेत्रीय चक्षु संस्थान के प्रोफेसर डा. नीलेश मोहन के अनुसार प्रदेश के बच्चों में अपवर्तक दोष जैसे मायोपिया यानी निकट दृष्टिदोष, स्क्रीन जनित थकान व पोषण की कमी तेजी से बढ़ रही है।
शहर से गांवों तक बच्चों की आंखों में रोशनी का संकट गहराता जा रहा है। इसका कारण अत्यधिक स्क्रीन टाइम, असंतुलित खानपान, अस्वस्थ जीवनशैली और बढ़ता प्रदूषण है। ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता, नेत्र स्क्रीनिंग सुविधा की कमी के कारण साधारण चश्मे से ठीक होने वाली समस्या कई बार गंभीर रूप में सामने आती है।
दुकान की मशीन से जांच करा चश्मा बनवाना घातक
आइजीआइएमएस स्थित क्षेत्रीय चक्षु केंद्र के चीफ आप्थलमिक धीरज कुमार के अनुसार आंखों का परीक्षण कोई चश्मे का दुकानदार नहीं कर सकता। यदि आप चश्मे दुकान में लगी अाटो-रेफ्रैक्टोमीटर मशीन से आंखों की जांच कराकर चश्मा बनवा रहे हैं तो यह आपकी आंखों की रोशनी के लिए घातक हो सकता है। बच्चों के मामले में तो यह और भी नुकसानदेह है। चश्मे के लिए केवल सिर्फ रिफ्रैक्शन यानी जांच नंबर ही काफी नहीं है।
आंखों में दवा डालकर ग्लूकोमा (काला मोतियाबिंद), रेटिना की गड़बड़ी, ड्राई आई या मांसपेशियों की कमजोरी देखने के लिए पूर्ण परीक्षण जरूरी है। आटो-रेफ्रैक्टोमीटर मशीन से केवल चश्मे के नंबर का अंदाज़ा लगता है। व्यक्ति की उम्र, जीवनशैली, कंप्यूटर या मोबाइल स्क्रीन पर बिताया समय, आंख की थकान जैसी स्थितियों को यह नहीं पकड़ पाती।
ऐसे में गलत नंबर का चश्मा आंखों की थकावट, सिरदर्द से लेकर दृष्टि दोष बढ़ने तक का कारण बन सकता है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद व राष्ट्रीय अंधता नियंत्रण कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार देश में हर तीसरा व्यक्ति चश्मा पहनता है लेकिन इनमें से 40 प्रतिशत लोगों ने कभी नेत्र विशेषज्ञ से जांच नहीं करवाई। एक निजी सर्वे के अनुसार पटना में स्कूल जाने वाले बच्चों में से 22 प्रतिशत ने गलत पावर का चश्मा पहना हुआ था।
डा. नीलेश मोहन के अनुसार 18 वर्ष तक आंखों की ग्रोथ के साथ नंबर तेजी से बदलता है। कई बार स्क्विंट या लेजी आइ जैसे दोष पकड़ में नहीं आते हैं। ऐसे में बिना पूर्ण नेत्र परीक्षण कराए इन लोगों का चश्मा नहीं बनवाना चाहिए।
स्क्रीन पर हर दिन दो घंटे से अधिक देने पर दृष्टिहृास शुरू
डिजिटल शिक्षा, आनलाइन गेम्स या मनोरंजन के लिए बच्चे बहुत समय स्क्रीन के सामने बिता रहे हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी इसकी चपेट में हैं। इससे मायोपिया (निकट दृष्टि दोष), एक्सोट्रोपिया (आंखों की दिशा की गड़बड़ी) जैसे रोगों में वृद्धि हुई है।
2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार पटना के स्कूली बच्चों में 6 प्रतिशत तक स्क्रीन-संबंधी नेत्र विकृति के मामले सामने आए। अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार प्रतिदिन 2 घंटे से अधिक समय स्क्रीन पर गुजारने से बच्चों की आंखों की मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है और जलन, आंखों में सूखापन और धीरे-धीरे दृष्टि में कमी की समस्या होने लगती है।
विटामिन ए की कमी से कम उम्र बड़ी समस्याएं
पोषण का सीधा असर आंखों पर होता है। विटामिन ए, ल्यूटिन व बीटा कैरोटीन जैसे पोषक तत्व आंखों के विकास व सुरक्षा को जरूरी हैं। पटना के सरकारी स्कूलों में वर्ष 2024 में हुए सर्वे लगभग 28 प्रतिशत बच्चों के आहार में विटामिन ए की कमी पाई गई थी। गाजर, पालक, हरी पत्तेदार सब्जियां, अंडा, दूध जैसे आहार पर्याप्त मात्रा में नहीं खाने से बच्चों में नाइट ब्लाइंडनेस व कार्निया संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं।
धूप व मैदान से दूरी भी नेत्र कमजोरी का कारण
डा. नीलेश के अनुसार शरीर के साथ आंखों के स्वास्थ्य में भी सूर्य की रोशनी की अहम भूमिका है। आज बच्चे घरों में बंद रहते हैं और मोबाइल, ट्यूशन या आनलाइन क्लास या टीवी में व्यस्त रहते हैं। मैदानों की कमी भी इसका एक कारण है।
कम से कम एक से दो घंटे तक खुले मैदान में खेलने न केवल शरीर बल्कि आंखों की मांसपेशियां भी सक्रिय होती हैं और दृष्टिदोष का खतरा कम होता है। इन कारणों से 2020 के मुकाबले 2025 में जिले में मायोपिया के मरीज तेजी से बढ़े हैं। बढ़ते वायु प्रदूषण से आंखों में जलन, एलर्जी, ड्राई आई सिंड्रोम व कंजेक्टवाइटिस जैसे मर्ज बढ़े हैं। आइजीआइएमएस में गर्मियों व मानसून में हर हफ्ते ओपीडी में 20 प्रतिशत मरीज कंजेक्टवाइटिस के ही होते हैं।
समाधान के लिए निम्न उपायों का रखें ध्यान
- -आंखों को आराम देने के लिए 20-20-20 का नियम अपनाएं। यानी हर 20 मिनट पर ब्रेक लें और स्क्रीन से कम से कम 20 फीट दूर जाकर 20 बार आंखों को झपकाएं।
- -टीवी को दूर से देखने का करें प्रयास और हर 20 सेकेंड पर पलकों को झपकाते रहें।
- -भूल कर आंखों की जांच चश्मे की दुकान पर नहीं कराएं, किसी अच्छे नेत्र विशेषज्ञ से ही चश्मे का नंबर लें।
- - आंखों की रोशनी दुरुस्त रखने के लिए मौसमी फल के अलावा गाजर, पालक, आंवला आदि प्रचुर मात्रा में लें व संतुलित घर का भोजन लें।
- - धुंधला व साफ नहीं दिखने पर तुरंत डाक्टरों से संपर्क करें। धूप में बाहर निकलने से पूर्व अच्छे सनग्लास का प्रयोग करें।
- -आंखों पर हर घंटे ठंडे पानी के छींटे मारते रहें। देर रात तक मोबाइल व टीवी देखने से बचे। कमरे में लाइट बंद करके कभी भी मोबाइल-टीवी नहीं देखें।
- - पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मोबाइल से दूर रखें, खुले में खेलने के लिए प्रोत्साहित करें।
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