One Nation One Election: 'एक देश-एक चुनाव' पर बिहार की राजनीति दो फांक, किसकी तरफ हैं प्रशांत किशोर?
एक देश-एक चुनाव (One Nation One Election) के मुद्दे पर बिहार की राजनीति दो धड़ों में बंटी हुई है। सत्ताधारी गठबंधन इसके पक्ष में है जबकि विपक्षी महागठबंधन इसका विरोध कर रहा है। इस व्यवस्था के समर्थक इसे राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक दक्षता का उपाय मानते हैं जबकि विरोधी इसे संवैधानिक खतरों और क्षेत्रीय असमानता बढ़ने की आशंका से देखते हैं।

राज्य ब्यूरो, पटना। एक देश-एक चुनाव (One Nation One Election) के मुद्दे पर बिहार की राजनीति स्पष्ट तौर पर दो फांक है। इसके समर्थन में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों के साथ नवगठित जन सुराज पार्टी (जसुपा) भी है। दूसरी ओर महागठबंधन है, जिसे यह विचार कतई स्वीकार्य नहीं। इसके सबसे बड़े घटक राजद द्वारा जगह-जगह पोस्टर लगाकर इसी के समानांतर समान शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था आदि का मुद्दा उछाला जा रहा है।
अंदरखाने चर्चा है कि क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व के लिए यह व्यवस्था घातक सिद्ध होगी। यह बात दीगर कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग-अलग होते हैं, लेकिन एक साथ चुनाव होने पर मुद्दों के गड्मगड्ड होने और चुनाव परिणाम पर उसके प्रभाव की आशंका है।
'सरकार का खर्च बढ़ता है'
उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी का कहना है कि जिस कांग्रेस को 1952 से 1967 तक एक साथ चुनाव के जरिये केंद्र और राज्यों की सत्ता में रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी, वह आज विरोध में खड़ी है। आए दिन चुनाव से विकास के काम बाधित होते हैं और सुरक्षा बलों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। सरकार का खर्च बढ़ता है।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. दिलीप जायसवाल मान रहे हैं कि इस व्यवस्था से राजनीतिक अस्थिरता को समाप्त किया जा सकता है। चुनाव प्रक्रिया में खर्च होने वाले धन और समय का सदुपयोग राष्ट्र निर्माण के कार्यों में किया जा सकता है। जसुपा के सूत्रधार प्रशांत किशोर की भी यही राय है, बशर्ते कि इस व्यवस्था के पीछे केंद्र की मंशा सही हो।
'ध्यान भटकाने का हथकंडा'
विपक्ष का भय वस्तुत: इस मंशा को लेकर ही है। कांग्रेस इसे महंगाई-बेरोजगारी-असहिष्णुता जैसे जरूरी मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने का हथकंडा बता रही तो राजद की राय में इस व्यवस्था से संवैधानिक खतरे की आशंका बढ़ेगी।
राजद के प्रदेश प्रवक्ता चित्तरंजन गगन का कहना है कि इसके जरिये केंद्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाने के साथ ही अधिनायकवादी व्यवस्था स्थापित करने की मंशा है। 1967 तक अगर एक साथ चुनाव हुआ तो उसकी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं थी। हालांकि, बाद के दिनों में कतिपय कारणों से अनेक राज्यों में मध्यावधि चुनाव कराने पड़े। भविष्य में यदि ऐसी स्थिति बनी तो क्या होगा? स्पष्ट है कि मध्यावधि चुनाव का विकल्प नहीं रहने पर राज्य में राष्ट्रपति के बहाने केंद्र का शासन होगा।
पिछले दिनों जिस प्रकार से राज्यों की निर्वाचित सरकारों को अस्थिर किया गया है वैसी स्थिति में एक देश-एक चुनाव की परिकल्पना संशय पैदा करने वाली है। राज्य और क्षेत्रीय स्तर पर संसाधन और समस्याएं अलग-अलग हैं। एक देश-एक चुनाव से क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। इससे क्षेत्रीय असमानता बढ़ेगी और असंतोष भी, जिसका प्रभाव आगे चलकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर भी पड़ सकता है।
प्रदेश महासचिव भाई अरुण का कहना है कि इससे पहले एक देश-एक शिक्षा, एक देश-एक चिकित्सा और एक देश-एक आय की नीति बनानी चाहिए। इसकी मांग करते हुए उन्होंने राजद के प्रदेश कार्यालय सहित पटना मेंं जगह-जगह होर्डिंग-पोस्टर भी लगा दिया है।
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