भाकपा के 100 साल: मजदूर वर्ग के लिए संघर्षरत है आजादी के गर्भ से निकली पार्टी, कैसा रहा सफर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे किए। 1925 में स्थापित, बिहार में इसकी राज्य इकाई 1939 में बनी। आजादी के संघर्ष से ले ...और पढ़ें

सीपीआई के नेता डी. राजा। फाइल फोटो
विद्या सागर, पटना। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का इतिहास देश के वाम आंदोलन की मजबूत धारा से जुड़ा रहा है। 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई।
आज पार्टी के स्थापना के सौ वर्ष पूरे हुए। स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी कभी देश या राज्यों की सत्ता में सीधे नहीं रही। केंद्र व राज्य में लंबे समय तक मुख्य विपक्षी पार्टी जरूर रही।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से ही बिहार में भी पार्टी का गठन हुआ। 20 अक्टूबर 1939 को भाकपा की राज्य इकाई का गठन मुंगेर में हुआ था।
मुंगेर में पड़ी पार्टी की नींव
उस समय पार्टी पर अंग्रेज हुकूमत ने प्रतिबंध लगा रखा था। मुंगेर में विजयादशमी पार्टी का अधिवेशन आयोजित करने और राज्य इकाई का गठन करने का निर्णय लिया। शांति मुखर्जी के लालदरवाजा आवास पर जुटान हुआ।
सुनील मुखर्जी, बिनोद बिहारी मुखर्जी, ज्ञान विजय मैत्रेय, अनिल मैत्रेय, रतन राय, देवकी नंदन पाठक, पटना के अली अशरफ, विश्वनाथ माथुर, पृथ्वी राज सिंह, डा. केशव सिंह, नागेश्वर सिंह, भागलपुर के दयानंद झा, श्यामलकिशोर झा, राहुल संकृत्यान, शिवलोचन सिंह जैसे दिग्गज जुटे।
पर्यवेक्षक के रूप में केंद्रीय कमेटी रूद्रदत भारद्वाज को भेजा गया था। पहले राज्य सचिव मुंगेर के सुनील मुखर्जी बने। पहले अधिवेशन में ही औपनिवेशिक सम्राज्यवाद से आजादी, जमींदारी प्रथा, बंधुआ मजदूरी का उन्मूलन, समांतवाद का खात्मा, समाज से छूआछुत का सफाया आदि प्रस्ताव पारित किया गया।
मुंगेर में नींव पड़ने के बाद सशक्त संगठन के कारण भाकपा पूरे बिहार में वाम आंदोलन का अगुआ बन गया। लेकिन, जातीय राजनीति के अभ्युदाय, उदारवाद के प्रभाव और नई पीढ़ी की वामपंथ से दूरी ने भाकपा को काफी नुकसान पहुंचाया।
बिहार में भाकपा के शुरुआती नेताओं ने किसानों, खेतिहर मजदूरों और औद्योगिक श्रमिकों के बीच संगठन निर्माण पर विशेष ध्यान दिया। शाहाबाद, मगध, मिथिलांचल और कोसी क्षेत्र में जमींदारी प्रथा के खिलाफ चलाए गए किसान आंदोलनों में भाकपा की अहम भूमिका रही।
अखिल भारतीय किसान सभा के माध्यम से किसानों को संगठित कर लगान, बेदखली और शोषण के खिलाफ संघर्ष किया गया। इन आंदोलनों ने बिहार के ग्रामीण समाज में राजनीतिक चेतना को मजबूती दी।
स्वतंत्रता के बाद भी भाकपा बिहार की राजनीति में सक्रिय रही। जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार, मजदूर अधिकार और सामाजिक न्याय के सवालों पर पार्टी ने लगातार आंदोलन चलाए।
1950 और 1960 के दशक में भाकपा के कई नेता विधानसभा और संसद तक पहुंचे, जिससे पार्टी की राजनीतिक उपस्थिति और मजबूत हुई।
आपातकाल के समय भाकपा के रुख को लेकर मतभेद रहे, लेकिन इसके बाद पार्टी ने लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली और जन सरोकारों के मुद्दों पर अपनी सक्रियता बढ़ाई।
1980 और 1990 के दशक में बिहार की राजनीति में जाति आधारित दलों के उभार के बीच भाकपा ने वर्गीय राजनीति और सामाजिक बराबरी के सवालों को प्रमुखता से उठाया।
खेत मजदूर संगठनों, ट्रेड यूनियनों और छात्र संगठनों के माध्यम से पार्टी ने जनाधार बनाए रखने का प्रयास किया। वर्तमान दौर में भाकपा बिहार में वाम लोकतांत्रिक ताकत के रूप में मौजूद है।
सीमित संसदीय प्रभाव के बावजूद पार्टी किसान-मजदूर, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा-स्वास्थ्य और लोकतांत्रिक अधिकारों जैसे मुद्दों पर लगातार संघर्ष कर रही है।
1972 में पार्टी का विधानसभा में रहा बेहतर प्रदर्शन
वर्ष 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में भाकपा का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था। इस वर्ष भाकपा ने 24 प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारा,लेकिन उसका कोई सदस्य विधानसभा नहीं पहुंच सका था।
1957 में पार्टी का खाता खुला पार्टी के सात नेता विधानसभा पहुंचे। वर्ष 1972 में भाकपा ने बिहार विधानसभा चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है।
छठे विधानसभा चुनाव में भाकपा ने कांग्रेस से तालमेल कर 55 प्रत्याशी खड़े किये और उसके 35 प्रत्याशी जीत हासिल करने में कामयाब रहे।
वहीं 1996 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के आठ नेता लोकसभा पहुंचे। आज बिहार में पार्टी के एक मात्र सदस्य तिरहुत शिक्षक निर्वाचन से बिहार विधान परिषद में है।

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