Bihar Election में आयातित उम्मीदवारों के भरोसे हैं राजनीतिक दल, कांग्रेस और लोजपा का हाल सबसे बुरा
बिहार में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और राजनीतिक दल उम्मीदवारों की कमी से जूझ रहे हैं। कई पार्टियां बाहरी उम्मीदवारों पर निर्भर हैं जैसा कि 2020 के चुनाव में देखा गया। कांग्रेस और लोजपा जैसी पार्टियों ने भी अन्य दलों से आए नेताओं को टिकट दिए। टिकट न मिलने पर नेता दल-बदल भी करते हैं जिससे राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है।

दीनानाथ साहनी, पटना। राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों की संख्या लाखों में है। पदाधिकारी और कार्यकर्ता भी हजारों हैं। अभी चुनाव को लेकर हर पार्टी 'वार्मअप' हो रही है।
रैली, कार्यकर्ता सम्मेलन व जनसंवाद करने की होड़ लगी है। कार्यकर्ता सम्मेलनों में पार्टियों का दावा है कि उनमें सैकड़ों हजार लोग शामिल हो रहे हैं। इन सबके बावजूद बिहार में विधानसभा की 243 सीटों के लिए उम्मीदवारों की जरूरत होती है तो सभी दल इधर-उधर झांकने लगते हैं।
2020 के विधानसभा चुनाव का रिकार्ड यही बताता है कि बड़ी-बड़ी पार्टियां भी आयातित उम्मीदवारों के भरोसे चुनाव में उतरती हैं। यह अलग बात है कि उनकी जीतने की क्षमता बेहद खराब है। अबकी बार भी अपवाद नहीं होगा।
योग्य उम्मीदवारों की कमी से जूझ रहे हर दल
जमीनी जुड़ाव न होने के चलते योग्य उम्मीदवारों की कमी से कमोवेश हर दल जूझ रहे हैं। इसका नजीर है बिहार विधानसभा चुनाव,2020। सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस का हाल और बुरा है।
महागठबंधन में उसने 70 सीटें ली थीं। योग्य उम्मीदवारों की कमी के कारण कांग्रेस को दो दजर्न सीटों पर अन्य दलों से आए नेताओं को टिकट देना पड़ा था। किंतु उसके महज 19 उम्मीदवार जीते थे।
यह अलग बात है कि उनकी जीतने की क्षमता बेहद खराब है। 2010 में कांग्रेस ने सभी 243 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए। मगर सिर्फ चार जीत पाए। इसी तरह लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने पिछले विधानसभा चुनाव में 137 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, दो उम्मीदवारों का नामांकन रद हो गया था।
135 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली लोजपा-(रामविलास) के सिर्फ एक उम्मीदवार जीते थे। जिन सीटों पर इस पार्टी ने उम्मीदवार दिए थे उनमें तीन दर्जन से ज्यादा आयातित उम्मीदवार थे। इसमें भाजपा व जदयू में टिकट पाने से वंचित रहे नामचीन नेता भी थे।
इसके बारे में जानकारी लेने पर लोजपा-(रामविलास) के मुख्य प्रवक्ता डॉ. राजेश भट्ट ने बताया कि पिछले चुनाव में भाजपा से पार्टी में आए रामेश्वर चौरसिया, डॉ. उषा विद्यार्थी, राजेन्द्र सिंह, इंदु कश्यप, शोभा सिन्हा पासवान, अभय सिंह और जदयू से श्रीभगवान सिंह कुशवाहा और रेणु कुशवाहा को टिकट देकर चुनाव में उतारा गया था, अब नेता पार्टी छोड़ चुके हैं।
विधानसभा व लोकसभा चुनाव में जदयू के साथ भी यही होता रहा है। बड़ी संख्या में दूसरे दलों से उम्मीदवारों का आयात करना पड़ा और उन्हें टिकट देकर मैदान में उतारना पड़ा।
2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू के 38 उम्मीदवार थे। उनमें 18 बाहरी थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जदयू की हालत नहीं सुधरी। 17 में पांच उम्मीदवार बाहर से लिए गए थे।
2025 के लोकसभा चुनाव में भी 16 में दो उम्मीदवार दूसरे दल से आए थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में भी जदयू ने कई सीटों पर आयातित उम्मीदवारों को खड़ा करना पड़ा था। विश्व की सबसे बड़ी पार्टी में शुमार भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद से आए उम्मीदवार को उतारना पड़ा था।
टिकट न मिलने पर दल-बदल करते नेता
यह आम चलन है कि जब चुनाव से ऐन पहले टिकट मिलने की संभावना खत्म हो जाती है तब नेता दल-बदल करने में हिचकते नहीं हैं। दल-बदल का यह सिलसिला चलता रहता है। राजनीतिक दलों में एक-दूसरे से उम्मीदवार लेने का चलन आम है। इसे अप्रत्याशित भी नहीं माना जाता है।
कुछ उदाहरण भी हैं-कांग्रेस के गजानन शाही 2010 में जदयू में आए और विधायक भी बने। 2015 में उन्हें जदयू से टिकट नहीं मिला तो पांच साल शांत रहने के बाद फिर वे कांग्रेस में चले गए।
जदयू के विधान पार्षद एवं मंत्री डॉ.अशोक चौधरी कांग्रेस में रहते विधायक-विधान पार्षद और मंत्री पद पर भी रहे। फिर कांग्रेस से जदयू में आ गए और विधान पार्षद बने और कई विभागों में मंत्री भी।
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के शत्रुघ्न सिन्हा और उदय कुमार सिंह ऊर्फ पप्पू सिंह कांग्रेसी हो गए। चुनाव में हार के बाद शायद भूल भी गए कि कभी कांग्रेस में थे। अभी शत्रुघ्न सिन्हा आसनसोल से तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं तो उदय कुमार सिंह ऊर्फ पप्पू सिंह जनसुराज में।
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