Bihar Politics: अभी नहीं तो कभी नहीं के भाव से दोनों गठबंधन आमने-सामने, PK ने भी खोल दिया नया मोर्चा
एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर है। महागठबंधन के लिए सत्ता में वापसी का सुनहरा अवसर है जबकि एनडीए सत्ता बरकरार रखने की पूरी कोशिश कर रहा है। कांग्रेस में राहुल गांधी की यात्रा के बाद नई ऊर्जा का संचार हुआ है। एनडीए सरकार की योजनाएं और नीतीश कुमार की छवि उसकी ताकत हैं लेकिन विधायकों के प्रति असंतोष और भ्रष्टाचार के आरोप चिंता का विषय हैं।

अरुण अशेष, पटना। एनडीए और महागठबंधन के बीच इस चुनाव में भूल चूक लेनी देनी का भी हिसाब होना है। दोनों गठबंधन अभी नहीं तो कभी नहीं के भाव से चुनाव लड़ रहे है। महागठबंधन अगर पिछड़ता है तो उसे पांच साल इंतजार करना होगा। अगर एनडीए के हाथ से सत्ता फिसलती है तो उसकी प्रतीक्षा लंबी हो सकती है, क्योंकि बिहार में सत्ता से सत्ता निकलने का ही फंडा काम करता है।
1967-72 और 1977-80 के दौर को छोड़ दें तो एक बार सत्ता में आई पार्टी या गठबंधन को एक से अधिक कार्यकाल मिलता रहा है। कांग्रेस, राजद और एनडीए इसके उदाहरण हैं। पांच साल पहले के चुनाव में महागठबंधन महज 12 हजार वोट और 12 विधायकों की कमी के कारण सत्ता से दूर रह गया था।
महागठबंधन के साथ सकारात्मक यह है कि पांच साल पहले तक सुस्त रही कांग्रेस राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा के बाद जागृत हो चुकी है।पुराने कांग्रेसी जो राजद पर उसके आश्रित होने के कारण घर बैठ गए थे या दूसरे दलों में चले गए थे, उत्सुकता से उसकी ओर देख रहे हैं। महागठबंधन का मनोबल पिछले साल के लोकसभा चुनाव के परिणाम से बढ़ा हुआ है।
2019 में महागठबंधन के हिस्से लोकसभा की केवल एक सीट आई थी। यह 2024 में नौ पर पहुंच गई। वह अगर एनडीए के एक के मुकाबले एक मजबूत उम्मीदवार देने में सफल हो जाए तो राह आसान हो जाएगी। महागठबंधन के साथ कठिनाई यह है कि उसके कुछ घटक उम्मीदवारों के चयन में जीत की संभावना के बदले किसी और गुण पर जोर देते हैं।
कुछ ऐसी ही स्थिति एनडीए के साथ भी है। उसके भी कुछ घटक उम्मीदवारों के चयन में जीत की संभावना को दूसरे नम्बर पर रखते हैं।
एनडीए की सबसे बड़ी मजबूती केंद्र और राज्य सरकार की बेशुमार योजनाएं हैं। उसके पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे न थकने वाले प्रचारक हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बहु स्वीकार्य छवि है। सबका साथ-सबका विकास और न्याय के साथ विकास, महज एनडीए का नारा नहीं है। वह इस पर अमल भी करता है, लेकिन हाल के दिनों में उसकी दो जानलेवा कमजोरी भी सामने आई है।
बेशक केंद्र या राज्य सरकार के विरूद्ध एंटी इंकंवेंसी फैक्टर नहीं है, लेकिन उसके विधायक इससे वंचित नहीं है। एनडीए की आंतरिक सर्वे रिपोर्ट में भी मौजूदा विधायकों के बारे में अच्छी-अच्छी बातें नहीं कही गई हैं। एक और पहलू है-उम्मीदवारों के चयन में मुंहदेखी। यह शिकायत जदयू में है। भाजपा में भी है। नेताओं की गुटबाजी के कारण कई अच्छे उम्मीदवार टिकट कटने की आशंका से ग्रस्त हैं।
सरकार के लिए एक नया मोर्चा भी खुल गया है। यह भ्रष्टाचार का मोर्चा है, जिसे जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर ने खोला है। इससे पहले सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की शिकायत होती थी। इसबार मंत्री और बड़े नेता इसकी चपेट में है। भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति पर चलने वाली सरकार के लिए ये आरोप अच्छे नहीं हैं।
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