बिहार विधानसभा चुनाव: दशकों से किसी बड़े दल का अकेले मैदान में उतरने का साहस क्यों नहीं?
बिहार की राजनीति में कोई भी दल अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठाता। 1990 के बाद से गठबंधन की राजनीति हावी रही है। कांग्रेस ने 1990 में 323 सीटों पर चुनाव लड़ा और सत्ता खो दी। भाजपा का ग्राफ बढ़ा है जबकि कांग्रेस का गिरता गया। नीतीश कुमार गठबंधन की राजनीति में महत्वपूर्ण बने हुए हैं।

अरुण अशेष, पटना। यह बिहार की राजनीति का कटु सत्य है कि कोई भी दल अकेले सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। कुछ दलों ने कभी साहस भी जुटाया तो परिणाम ने औंधे मुंह गिरा दिया। 1990 के बाद से यही चल रहा है।
1990 से 2000 तक अविभाजित बिहार में विधानसभा की 324 सीटें थी। बाद में 243 रह गईं। 1990 में कांग्रेस 323 सीटों पर लड़ी थी। उस चुनाव के परिणाम के साथ ही कांग्रेस सत्ता से सीधे विपक्ष में बैठ गई।
पांच साल बाद 1995 में वह विपक्ष से भी विदा हो गई। 1990 में जनमोर्चा के नाम से विपक्षी दलों के गठबंधन से कांग्रेस का मुकाबला हुआ।
मोर्चा का सबसे बड़ा घटक जनता दल था, जिसके 276 उम्मीदवार खड़े हुए। भाजपा ने 237 सीटों पर उम्मीदवार उतारा।
वाम दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा भी जनमोर्चा के घटक की तरह चुनाव लड़े, लेकिन कांग्रेस के एक के मुकाबले एक उम्मीदवार खड़ा करने का प्रयास सफल नहीं हो पाया।
मोर्चा के घटक दल कई सीटों पर दोस्ताना मुकाबला के नाम पर लड़े। फिर भी जनता दल की सरकार बन गई, जिसे झामुमाे, भाजपा और वाम दलों ने बाहर से समर्थन किया था। भाजपा जल्द ही मोर्चा से बाहर हो गई। पांच साल बाद 1995 में हुए चुनाव में भाजपा अकेले 315 सीटों पर लड़ी। वह 41 सीट लेकर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बनी। सदन में विरोधी दल का दर्जा भी मिला।
कांग्रेस 320 सीटों पर लड़कर 29 जीत पाई। वह तीसरे नम्बर पर पहुंच गई।1994 में जनता दल के सांसदों ने बगावत कर नई पार्टी का गठन किया।
समता पार्टी के रूप में एक नई पार्टी विधानसभा चुनाव में शामिल हुई। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तावित किया गया।
310 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली समता पार्टी महज सात सीटें हासिल कर पाई। समता पार्टी का कुछ सीटों पर भाकपा माले के साथ समझौता हुआ था।
1995 में मुख्यमंत्री के रूप में लालू प्रसाद अपराजेय बन कर उभरे थे। अकेले उनके जनता दल को 167 सीटें मिल गई थी। अगली गोलबंदी लालू प्रसाद के विरोध में शुरू हुई।
1997 में जनता दल से अलग होकर लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया। उधर जनता दल, समता पार्टी और भाजपा के बीच गठबंधन हुआ।
2000 में यह गठबंधन लालू प्रसाद को सात दिनों के लिए अपदस्थ करने में सफल हुआ। नीतीश कुमार सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने।
बाद में कांग्रेस, झामुमो और वाम दलों की मदद से राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बन गईं। उस चुनाव में कांग्रेस सभी 324 सीटों पर लड़ी थी। 23 उम्मीदवार जीत पाए। वह चौथे नम्बर की पार्टी बन गई थी।
2000 के नवंबर में बिहार का विभाजन हुआ। विधानसभा की सीटों की संख्या 243 रह गई। सीटों की संख्या कम होने के बाद भी 2005 के विधानसभा चुनाव में किसी दल ने सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने का साहस नहीं दिखाया।
हां, 2010 में राजद के साथ तकरार के बाद कांग्रेस के उम्मीदवार सभी सीटों पर उतरे। परिणाम कांग्रेस के लिए इस लिहाज से ऐतिहासिक रहा कि उसके विधायकों की संख्या चार पर अटक गई। यह 75 सीटों पर लड़ने वाली लोजपा से एक अधिक थी।
कांग्रेस 2015 और 2020 का विधानसभा चुनाव महागठबंधन के साथ मिल कर लड़ चुकी है। 2025 में भी वह महागठबंधन के घटक के रूप में ही लड़ेगी।
स्ट्राइक रेट के लिहाज से 2015 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए शानदार रहा। कुल 41 में से 27 उम्मीदवार चुनाव जीत गए।
लोजपा भी अकेले लड़ी
लोजपा विधानसभा का तीन चुनाव अकेले लड़ी है। उस समय भी सभी सीटों पर लोजपा के उम्मीदवार नहीं थे। 2005 के फरवरी में लोजपा के 178 और अक्टूबर में 203 उम्मीदवार खड़े हुए।
फरवरी वाले चुनाव में लोजपा के 29 और अक्टूबर में 10 उम्मीदवार जीते। 2020 में लोजपा अपने दम पर 135 सीटों पर लड़ी। सिर्फ एक पर जीत हुई। इकलौते विधायक जदयू में शामिल हो गए।
2014 के लोकसभा में जदयू के 38 उम्मीदवार
एनडीए से अलग होकर जदयू पहली बार राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 38 सीटों पर चुनाव लड़ा। इसे अकेले चुनाव लड़ना नहीं कहा जा सकता है।क्योंकि जदयू को भाकपा से समझौता हुआ था।भाकपा को लोकसभा की दो सीटें दी गई थी।
गठबंधन की जीत की गारंटी होते हैं नीतीश
कांग्रेस, लोजपा और जदयू को गठबंधन के साथ और अलग होकर चुनाव लड़ने का अनुभव है। अलग चुनाव लड़ने का अनुभव अच्छा नहीं है।
कारण यह है कि कांग्रेस, भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ कर अन्य क्षेत्रीय दलों का प्रभाव कभी पूरे राज्य में समान स्तर का नहीं रहा।
क्षेत्रीय पार्टियां कुछ जातियों और इलाके में अपने प्रभाव को स्थापित कर पाईं। जदयू की पहचान थोड़ी अलग जरूर बनी।
इस दल ने अत्यंत पिछड़ी जातियों को आधार मानकर समाज के सभी हिस्से में अपने प्रभाव का विस्तार किया। इसमें नीतीश कुमार की अगुआई वाली सरकार की नीतियों का अधिक प्रभाव रहा।
क्याेंकि ये नीतियां समाज के सभी हिस्से के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। इसीलिए नीतीश राज्य के लिए अपरिहार्य बने हुए हैं।
लोग वोट किसी दल को दें, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनते हैं। वह अबतक किसी भी गठबंधन की जीत की गारंटी रहे हैं।
यही कारण है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में तीसरे नम्बर की पार्टी बनने के बावजूद भाजपा और राजद ने नीतीश को ही मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया।
भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ा
भाजपा इकलौती ऐसी पार्टी है, जिसका ग्राफ 2015 के विधानसभा चुनाव को छोड़कर लगातार बढ़ता रहा। भाजपा की उपलब्धि को देखिए 1990- 39, 1995- 41, 2000- 67, 2005 (फरवरी)- 37, (राज्य विभाजन के बाद पहला चुनाव, जब विधानसभा की सदस्य संख्या 324 के बदले 243 रह गई।), 2005 (अक्टूबर)- 55, 2010- 91, 2015- 53 और 2020- 74। ठीक इसके विपरीत कांग्रेस का ग्राफ गिरता चला गया।
कांग्रेस को मिली सीटें
1990- 71, 1995- 29, 2000- 23, 2005 (फरवरी)- 10, 2005 (अक्टूबर)- 04, 2015- 27, 2020- 19।
क्या कहते हैं दलों के नेता
गठबंधन की राजनीति आज की जरूरत है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। समान विचारधारा की पार्टियां एक मंच पर आकर चुनाव लड़ रही हैं। इससे भाजपा के विस्तार को रोकने में मदद मिल रही है।
प्रेमचंद्र मिश्रा, राष्ट्रीय मीडिया पैनलिस्ट, कांग्रेस।
हमारा उद्देश्य भाजपा जैसी सांप्रदायिक शक्तियों के प्रभाव को धीरे-धीरे समाप्त करना है। यह उद्देश्य जिस किसी दल का है, हम उनसे गठबंधन कर चुनाव लड़ते हैं।
चितरंजन गगन, प्रवक्ता, बिहार राजद।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के साथ हमारा गठबंधन अटल बिहारी वाजपेयी के वचन का सम्मान है। अटलजी ने ही नीतीशजी को मुख्यमंत्री बनने का आशीर्वाद दिया था। वे जबतक चाहें, मुख्यमंत्री रहेंगे, भाजपा का गठबंधन भी कायम रहेगा।
नीरज कुमार, प्रवक्ता, भाजपा।
जदयू और हमारे नेता नीतीश कुमार की राजनीति न्याय के साथ विकास के मूल सिद्धांत पर आश्रित है। इस नीति में विश्वास रखने वाले दलों के साथ जदयू का चुनावी गठबंधन होता है।
डा. निहोरा प्रसाद यादव, प्रवक्ता, जदयू।
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