Holi 2025: बिहार में विलुप्त हो रही पुरानी परम्पराएं, होली पर मिट्टी के ढेले से लगाते थे बारिश का अनुमान
होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं बल्कि सदियों पुरानी परंपराओं का भी प्रतीक है। जानिए कैसे होलिका दहन से मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता था और किसान गरमा फसल की तैयारी करते थे। बदलते वक्त के साथ लुप्त होती परंपराओं की कहानी जो आज भी हमारे बुजुर्गों की यादों में ताजा है। बुजुर्गों का कहना है कि होलिका दहन तो हो रहा लेकिन समाजिक परंपराएं हमसे दूर हो गईं।
अमरेंद्र तिवारी, मुजफ्फरपुर। होलिका दहन से पहले विधि-विधान के साथ पूजा-हवन की परंपरा रही है। पुराने दौर में होलिका दहन के लिए चारों दिशाओं से मिट्टी का ढेला लाकर रखा जाता था।
इसके बाद होली गीत के बीच होलिका दहन होता था। खेतों में उगने वाले आनाज गेहूं, मटर, चना, अरहर, जौ का होरहा जलाकर लोग मवेशी के बथान में टांगते थे। होलिका दहन के अगले दिन लोग उसी राख को उड़ाने की सामाजिक परंपरा का निर्वाह करते हुए उस ढेले को निकालते थे।
पानी भरे कलश के आसपास रखे ढेले को देखा जाता कि किस दिशा का ढेला कितना भीगा है। उसी से अनुमान लगाया जाता था कि किस माह में कितना पानी होगा।
अलग-अलग दिशा से उठाया गया ढेला महीने का प्रतीक बनाया जाता था। समय के साथ अब यह सारी परंपराएं लुप्त हो गईं।
होलिका दहन से लगाते थे मौसम का पूर्वानुमान
चंपारण के गम्हरियां खुर्द निवासी रघुवीर महतो कहते हैं कि पहले सम्मत के नीचे कलश में पानी रखकर पुआल से उसे ढक दिया जाता था। उसके बाद गड्ढे के अंदर पुआल रखकर फिर माटी से कलश को भरते हुए उसके ऊपर होलिका की लकड़ी और पुआल लाकर जलाया जाता था।
कलश के पास पूरब से आषाढ़ की माटी, दक्षिण से सावन, भादो का पश्चिम तथा अश्विन उत्तर की ओर रखा जाता। ठेला लाने का विधान भी था। उसमें पूरब से आषाढ़, दक्षिण से सावन, पश्चिम से भादो और उत्तर से आश्विन को संबोधित करते हुए मिट्टी लाई जाती थी।
उसके बाद एक जगह जमा होने के बाद ढेले को गोलाकार बनाते हुए टोली निकलती थी। प्रमाण यह था कि जिस माह की मिट्टी जितनी भीगी रहती है, उसके हिसाब से अंदाज लगाया जाता कि कितनी बारिश होगी।
मिठनसराय निवासी अधिवक्ता अरुण पांडेय कहते हैं कि अब मौसम का पूर्वानुमान लोग मोबाइल, टीवी और अखबारों में देख लेते हैं, इसलिए पुरानी परंपराएं छोड़ दी गईं।
पहले खेती-किसानी के लिए होलिका दहन के दिन पूर्वानुमान होता था। उसी के साथ लोग गरमा फसल की तैयारी करते थे। लक्ष्मण सहनी तथा सेवानिवृत्त दारोगा लालबाबू सिंह कहते हैं कि न वह देवी है न वह कराह। सब बदल गया।
अब सम्मत यानी होलिका दहन तो हो रहा, लेकिन समाजिक परंपराएं हमसे दूर हो गईं। जहां मन होता है, वहीं पर कूड़ा-कचरा जमा करके लोग जला देते हैं।
सुख-स्मृद्धि की होती थी कामना
बाबा गरीबननाथ मंदिर के प्रधान पुजारी 67 वर्षीय पंडित विनय पाठक कहते हैं कि जब हम लोग बच्चे थे, तब देखते थे कि गांव में होलिका दहन की एक जगह बनाई जाती थी।
उस जगह की विधिवत सफाई के बाद होलिका के लिए पंचांग के अनुसार जो समय तय होता, वहां पूरे गांव के लोग होलिका जलाने के लिए अपने-अपने घर से गोईंठी, लकड़ी, पुआल आदि लेकर आते थे। देखते ही देखते एक बड़ा ढेर लग जाता। फिर वहां पर होलिका की पूजा होती थी।
गांव के सभी लोग हवन करते थे और यह कामना की जाती थी कि गर्मी में गांव की रक्षा हो। अगलगी की घटना न हो और किसान का अनाज सुरक्षित तरीके से घरों में आ जाए। गांव में शांति और समृद्धि रहे। होलिका जलने के बाद होली गीत गाते हुए लोग वापस अपने घर आते थे।
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