Jamui News: कामगारों के लिए जंगल में चल रहे शिशु घर, 7 महीने से 3 साल तक के 20-20 बच्चों का हुआ दाखिला
जमुई जिले के जंगली इलाकों में चल रहे शिशु घर कामगारों के लिए किसी वरदान से कम नहीं हैं। इन केंद्रों में 7 महीने से 3 साल तक के बच्चे नामांकित हैं। जंगल में लकड़ी दातून पत्तल चुनकर जीवनयापन करने वाले दंपती इन केंद्रों में बच्चों को रखकर बेफिक्र होकर काम पर जा सकते हैं। इन केंद्रों पर बच्चों के पोषण और समग्र विकास का भी ध्यान रखा जाता है।
आशीष सिंह चिंटू, जमुई। बिहार के जमुई जिले के जंगली क्षेत्रों में शिशु घर संचालित हैं। शहरों में कामकाजी दंपतियों के छोटे बच्चों की देखभाल के लिए बेबी केयर सेंटर (क्रेच) होते हैं।
इसी तर्ज पर झाझा प्रखंड के आदिवासी बहुल जंगल क्षेत्रों में भी एक दर्जन शिशु घर संचालित हैं। इन केंद्रों में सात महीने से तीन साल तक के 20-20 बच्चे नामांकित हैं।
जंगल में लकड़ी, दातून, पत्तल चुनकर जीवनयापन करने वाले दंपती इन केंद्रों में बच्चों को रखकर जंगल जाते हैं।
इससे बच्चे जंगल में दिन गुजारने से होने वाली परेशानियों से बच जाते हैं तो उनकी सुरक्षा को लेकर माता-पिता भी निश्चिंत रहते हैं। केंद्रों पर बच्चों के पोषित रखने के साथ उनके समग्र विकास पर भी ध्यान दिया जाता है।
ग्रामीणों और एक संस्था 'समग्र सेवा' के सहयोग से यह शिशु घर पन्ना, डुमरडीहा, सरैया, सहिया, तुंबापहाड़, नारगंजो, माणिकथान, लौगाय, सहिया तथा लोहियानगर मुसहरी में संचालित हैं।
इसका उद्देश्य बच्चों को कुपोषण से बचाना और उनका समग्र विकास करना है। बताया जाता है कि दिन भर जंगल में रहने से छोटे बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
साथ ही जंगली जानवरों, कीड़े-मकोड़ों, सांप-बिच्छुओं आदि का खतरा भी रहता है। दंपती जंगल जाने के लिए बच्चों को बड़े भाई-बहन के भरोसे घर पर छोड़ते हैं तो कई ऐसे भी हैं, जिनके घर में कोई नहीं।
ऐसे में ये दंपती बच्चों को लेकर जंगल जाने को मजबूर रहते हैं। इन केंद्रों पर बच्चों को पौष्टिक आहार के साथ ही मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक विकास के लिए गतिविधियां कराई जाती हैं।
संस्था की पर्यवेक्षिका काजल कुमारी ने बताया कि बच्चों को सुबह के नाश्ते में चना, चावल, गेहूं के मिश्रण से बने सत्तू को गुड़ में सान कर दिया जाता है।
दोपहर के भोजन में खिचड़ी-अंडा तथा शाम में दलिया-सूजी का हलवा खिलाया जाता है। ताली बजाना, चीजों को पहचानना, रस्सी कूदना, माला बनाना, रंग की पहचान समेत एक पैर पर चलने वाले खेल बच्चे खेलते हैं। एक केंद्र पर दो महिलाएं काम करती हैं। उन्हें सहयोग राशि मिलती है।
अब बच्चों की नहीं रहती चिंता
ग्रामीण अनीता कुमारी बताती हैं कि जंगल में बच्चे को जब साथ ले जाते थे तो मौसम की मार और प्यास से बच्चे परेशान रहते थे। जंगल में खतरा भी अधिक था।
हमारे साथ उसे भी छह से सात घंटे जंगल की कठिन स्थिति को झेलना पड़ता था। केंद्र बनने के बाद यह चिंता दूर हो गई। बच्चे यहां दिन भर सुरक्षित रहते हैं।
खेलते हैं, बढ़िया खाते हैं। एक अन्य ग्रामीण रूबी देवी ने बताया कि जीवनयापन के लिए जंगल जाना मजबूरी है। सूखी लकड़ी, पत्तल, दातून जमाकर बेचने पर ही घर का चूल्हा जल पाता है।
घर पर छोटे बच्चों को बडे़ बच्चों के भरोसे छोड़कर जाते थे। घर पर अकेले रहने से बच्चे का ढंग से खानपान नहीं हो पाता था। साथ ही वह इधर-उधर भटकता भी रहता था। अब केंद्र खुलने से बच्चे यहां आराम से दिन बिता रहे।
झाझा प्रखंड के जंगल में 40 शिशु घर खोलने की योजना है। अभी 12 शिशु घर संचालित हैं। इनमें 240 बच्चे नामांकित हैं। यहां पोषण समेत बच्चों के समग्र विकास का ध्यान रखा जाता है।- काजल कुमारी, संस्था की पर्यवेक्षिका
अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से मिलता है सहयोग
समग्र सेवा संस्थान को अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, बेंगलुरु का साथ मिला है। समग्र सेवा के सचिव मकेश्वर रावत ने बताया कि समग्र सेवा संस्था बिहार के जमुई में काम करती है। रवींद्र पांडेय संस्था के अध्यक्ष है।
संस्था ग्रामीण व जंगली इलाके में शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण व कुपोषण मुक्ति अभियान पर काम करती है।
छात्रों को नि:शुल्क कापी-किताब, सुदूर जंगली क्षेत्र में बच्चों के लिए शैक्षणिक सुविधा, किशोर-किशोरियों को उम्र के सापेक्ष शारीरिक व नैसर्गिक बदलाव की जानकारी देने का काम संस्था द्वारा किया जाता है।
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