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    संन्यास पीठ का क्‍या है उद्देश्‍य?... क्‍यों ग्रहण करें सन्‍यास, बता रहे स्‍वामी निरंजनानंद सरस्‍वती

    By Dilip Kumar ShuklaEdited By:
    Updated: Tue, 13 Sep 2022 01:28 PM (IST)

    स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने कहा कि क्रोध एक मनोरोग है जो मानसिक ताप को दर्शाता है। इसके अलावा उन्‍होंने संन्‍यास आश्रम के बारे में कई महत्‍वपूर्ण जानकारी दी। कहा कि संन्‍यास एक ऐसा आश्रम है जिससे संस्‍कार मिलता है।

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    स्वामी निरंजनानंद सरस्वती, पूजा अर्चना करते हुए।

    जागरण संवाददाता, मुंगेर। संन्यास पीठ में आठ सितंबर से चल रहे श्री लक्ष्मीनारायण महायज्ञ की पूर्णाहुति सोमवार को स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की प्रेरक उपस्थिति में हुई। स्वामी जी ने मुंगेर, बिहार, देश और विश्व के उन सभी भक्तों की ओर से अंतिम आहुति प्रदान की जो महामारी के कारण यज्ञ में सशरीर उपस्थित नहीं हो सके, लेकिन हृदय और भावना से यज्ञ से अवश्य जुड़े थे। ऐसे भक्तों की सुविधा के लिए यज्ञ के लाइव स्ट्रीमिंग की भी व्यवस्था की गई थी। 70 से ज्यादा देशों के लोगों ने लाभ उठाया।

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    स्वामी जी ने श्री लक्ष्मीनारायण यज्ञ के महत्त्व और इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह यज्ञ श्री स्वामी सत्यानन्द जी के संकल्प और आदेश का ही मूर्त रूप है। सन 2009 में स्वामी सत्यानन्द जी ने स्वामी निरंजनानंद जी को योग प्रचार का कार्य समाप्त कर संन्यास मार्ग में आगे बढऩे का आदेश दिया था। साथ ही उन्होंने संन्यास पीठ की स्थापना का भी निर्देश दिया, जिसका प्रयोजन साधु, समाज और संस्कृति का उत्थान है। संन्यास पीठ का उद्देश्य लोगों को संन्यासी बनाना नहीं, बल्कि उन्हें सकारात्मक संस्कार देकर एक रचनात्मक जीवनशैली के लिए प्रेरित करना है। आने वाले समय में भी संन्यास पीठ के सभी प्रयास इसी दिशा की ओर रहेंगे। कोरोना महामारी के प्रतिबंधों के कारण पिछले दो वर्ष संन्यास पीठ के अनेक कार्यक्रम स्थगित रहे, लेकिन इस वर्ष से पुन: संन्यास अनुभव और जीवनशैली सत्रों का श्रीगणेश हुआ है, जिनमें देश के अनेक स्थानों से प्रतिभागी शामिल हुए हैं।

    मनोरोग के प्रति ध्यान नहीं जाता

    स्वामीजी ने कहा कि शारीरिक रोगों का निवारण तो सभी करना चाहते हैं, लेकिन अपने मनोरोगों के प्रति किसी का ध्यान नहीं जाता। जिस प्रकार ज्वर या बुखार एक शारीरिक रोग है जो शरीर में अधिक ताप होने का लक्षण है, उसी प्रकार क्रोध एक मनोरोग है जो मानसिक ताप को दर्शाता है। यह हमें अंदर से जलाते रहता है, लेकिन हम इसके निवारण या नियंत्रण का कभी प्रयास नहीं करते। संन्यास की व्यावहारिक शिक्षा इस दिशा में सजग और समर्थ बनाता है। स्वामीजी ने कहा कि स्वामी शिवानंद जी और स्वामी सत्यानंद जी की संन्यास के बारे में जो परिकल्पना है, उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ का कोई स्थान नहीं।

    उनके अनुसार संन्यासी समाज त्याग करने वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि दया, करुणा, सेवा और निस्वार्थता की भावना से युक्त होकर समाज से जुडऩे वाला व्यक्ति है। हम सब संन्यासी तो नहीं हो सकते, लेकिन संन्यास की भावना को अपनाकर कम से कम यह संकल्प तो ले सकते हैं कि हम प्रसन्न और सकारात्मक रहते हुए दूसरों के दु:खों और कष्टों के निवारण का प्रयास करेंगे। यदि हम प्रतिदिन एक अच्छा कर्म करने का संकल्प लें तो कालांतर में यह सद्भाव का सागर बन जाएगा।

    गुरु के अधिकांश चेले मनमुखी होते हैं

    स्वामीजी ने कहा कि गुरु के अधिकांश चेले मनमुखी होते हैं, वे गुरु को अपने अनुरूप बनाना चाहते हैं। कुछ विरले चेले गुरुमुखी होते हैं और वही वास्तव में शिष्य कहलाने के अधिकारी होते हैं। वे केवल गुरु को अपने सामने रखते हैं, अपने मन को नहीं। स्वामी सत्यानन्द जी अपने गुरु के प्रति पूर्णतया समर्पित थे, और इसी समर्पण और श्रद्धा के बल पर वे संसार में एक महान विभूति के रूप में प्रकाशित हुए।