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रोमांचक मोड़ पर पहुंचा बिहार चुनाव: सीमांचल में मोदी, राहुल, ओवैसी और तेजस्वी की तेज हुई किलेबंदी

24 सीटों वाली सीमांचल में मोदी की सभा से समीकरण बदलने के साथ-साथ ध्रुवीकरण के भी आसार हैं। वहीं अल्पसंख्यक बहुल सीमांचल में हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी के लगातार कैंप किए जाने से महागठबंधन की नींदे उड़ चुकी हैं।

By Prateek KumarEdited By: Published: Mon, 02 Nov 2020 10:46 PM (IST)Updated: Mon, 02 Nov 2020 10:48 PM (IST)
ओवैसी की मौजूदगी के बीच गोलबंदी में जुटे राहुल और तेजस्वी।

किशनगंज, अमितेष। विधानसभा चुनाव के तीसरे और आखिरी चरण में सीमांचल पर तमाम राजनीति दलों की नजरें टिकी है। लिहाजा चुनाव के आखिरी पड़ाव पर आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, असदुद्दीन ओवैसी और तेजस्वी यादव की किलेबंदी तेज हो गई है। 24 सीटों वाली सीमांचल में मोदी की सभा से समीकरण बदलने के साथ-साथ ध्रुवीकरण के भी आसार हैं। वहीं अल्पसंख्यक बहुल सीमांचल में हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी के लगातार कैंप किए जाने से महागठबंधन की नींदे उड़ चुकी हैं। इस बीच सुशासन और विकास का हवाला देकर नीतीश कुमार भी एनडीए के पक्ष में मतदाताओं को साधने के लिए ताबड़तोड़ रैली कर रहे हैं। आखिरकार विकास के तमाम दावों के बीच तीन तलाक, सीएए, एनआरसी, एनपीआर की लौ पर सियासी खिचड़ी पकाने के लिए एनडीए और महागठबंधन तो हैदराबादी बिरयानी तैयार करने के लिए ओवैसी बेताब दिख रहे हैं। अल्पसंख्यकों के बीच खुद को सच्चा रहनुमा बताने की होड़ भी है।

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कुंद हो चुकी मोदी विरोध की राजनीति को धार देने की हो रही कोशिश 

दरअसल 2014 के आमचुनाव में अल्पसंख्यक बहुल सीमांचल का यह इलाका मोदी विरोध की राजनीति का केंद्र बना था। जिसे 2015 के विधानसभा चुनाव में और अधिक मजबूती भी मिली। लेकिन बाद के दिनों में नीतीश कुमार के भाजपा के साथ चले जाने से मोदी विरोध की राजनीति कुंद पड़ती चली गई। यही वजह रहा कि 2019 के आम चुनाव में सीमांचल की चार में से तीन सीट पर एनडीए को भारी अंतर से जीत मिली। हालांकि 2014 के चुनाव परिणाम के बाद सीमांचल राजनीति का प्रयोगशाला बन गया। 24 सीटों वाली सीमांचल में मुद्दे चाहें जो भी हो लेकिन असल लड़ाई चेहरे पर लड़ी जा रही है। चर्चा के केंद्र में प्रत्याशी नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और असदुद्दीन ओवैसी हैं। लिहाजा राजनीति के प्रयोगशाला में एनडीए के साथ-साथ महागठबंधन और एआइएमआइएम का कड़ा इम्तहान है।

ऐसे समझे यहां का गणित

आंकड़ों पर गौर करें किशनगंज में 68, पूर्णिया में 39, कटिहार में 45 और अररिया में 44 फीसद अल्पसंख्यक हैं। लिहाजा अल्पसंख्यकों को रिझाने में ओवैसी कोई कोर कसर छोड़ना नहीं चाह रहे हैं। वहीं एनडीए का पूरा जोर वोटों के बिखराव के बीच ध्रुवीकरण पर है। मुस्लिम मतदाताओं को कोर वोटर मान रहे राजद और कांग्रेस अपनी मजबूत किले को सुरक्षित करने में जुटी है। हालांकि 2015 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी सीमांचल की छह सीटों पर लड़े तो बमुश्किल 80 हजार वोट मिले थे लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट बढ़कर तीन लाख पहुंच गया फिर उपचुनाव में किशनगंज सीट जीत कर अपनी मजबूत दखल का प्रमाण भी दे चुके हैं।

अब जबकि मतदान तिथि नजदीक आ गया है तो तमाम मुद्दे गौण होते जा रहे हैं। विकास के तमाम दावे और वादों के बीच सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसे मुद्दे उछाले जा रहे हैं। हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी महागठबंधन के वोट बैंक में सेंधमारी कर अपनी पैठ बनाने में जुटे हैं तो महागठबंधन और एनडीए अपनी सीट बचाने के साथ-साथ अन्य पर कब्जा जमाने की जुगत में हैं। असल परीक्षा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राहुल गांधी की है। विकास के नाम पर वोट मांग रही जदयू को अपनी सीटें बचाने की चुनौती है। तो कांग्रेस के सामने जीती हुई सीटों पर कब्जा बरकरार रखने की। साथ ही ओवैसी के मजबूत दखल से वोटों के बिखराव को रोकने की परीक्षा होगी।


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