'मैला आंचल' वाले फणीश्वरनाथ रेणु भी बुरी तरह हार गए थे बिहार चुनाव, 1972 में निर्दलीय लड़े थे फारबिसगंज से
Bihar Chunav बिहार के अररिया में महान विभूति बड़े लेखक साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु बुरी तरह विधानसभा चुनाव हार गए थे। वर्ष 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में रेणु फारबिसगंज से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े थे। तब वे जीत के लिए नहीं हुकूमत के प्रतीकात्मक विरोध में चुनाव लड़े थे। हार के बाद रेणु ने चुनाव नहीं लड़ने की कसम खायी थी।

अफसर अली, अररिया। Bihar Chunav मुंशी प्रेमचंद सरीखे महान विभूति, बड़े लेखक और साहित्यकार बिहार के अररिया का लाल फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कलम की स्याही से साहित्य के क्षेत्र में पूरे विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। जिनके गढ़े साहित्य व किस्से कहानियों से फिल्म फिल्माया गया। विश्व के साहित्यकारों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाने वाले महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु 1972 के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार गए थे।
इसके बाद वे कभी चुनाव नहीं लड़े। यह उनका पहला और आखिरी चुनाव था। लेकिन उनके बड़े पुत्र पद्म पराग राय वेणु ने 2010 में उसी फारबिसगंज से जीत कर पिता की हार का बदला लिया। जहां आज राजनीतिक पार्टियों के प्रत्याशी एक दूसरे पर व्यक्तिगत, घिनौनी टिपन्नी करने से गुरेज नहीं करते, वहीं चुनावी प्रचार में रेणु किसी भी प्रत्याशी के विरुद्ध कड़वी टिपन्नी नहीं की। चार दोस्त एक साथ मैदान में थे और उनके बीच बीच मुकाबला था।
बुजुर्ग पूर्व मुखिया नंदमोहन झा बताते हैं कि आपातकाल से ठीक पहले की बात है। बिहार के विधानसभा चुनाव में कई साहित्यकार व लेखकों ने हिस्सा लिया था। 1972 का चुनाव हुआ। उस समय अररिया पूर्णिया जिला का हिस्सा था। साहित्यकारों के आग्रह पर फारबिसगंज विधानसभा से आंचलिक साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु निर्दलीय उम्मीदवार हो गए।
कांग्रेस ने सरयू मिश्र को अपना उम्मीदवार बनाया था। सरयू मिश्र की गिनती उस समय राज्य के वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं में होती थी। सोशलिस्ट पार्टी से लखनलाल कपूर उम्मीदवार थे। सरयू मिश्र, लखन लाल कपूर व रेणुजी तीनों मित्र हुआ करते थे। 1942 के आंदोलन में तीनों एक साथ भागलपुर जेल में बंद भी थे।
रेणुजी का चुनाव चिह्न नाव था। उनके पक्ष में जहां साहित्यकारों और लेखकों की टोली गांव-गांव घूम कर प्रचार कर रही थी, वहीं लखन लाल कपूर के लिए समाजवादी नेता जनसंपर्क कर रहे थे। कांग्रेस के नेता सरयू मिश्र के पक्ष में थे। चुनाव के दौरान रेणु के पक्ष में नारा लगा था- कह दो गांव गांव में, अबकी इस चुनाव में, वोट देंगे नाव में।
तीनों उम्मीदवारों ने चुनाव के दौरान एक- दूसरे के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की। जब परिणाम आया तो रेणु जी चौथे नंबर पर रहे। दरअसल रेणुजी इस चुनाव में जीतने के लिए नहीं, बल्कि हुकूमत के प्रतीकात्मक विरोध में चुनाव लड़े थे।
मारे गए गुलफाम, मैला आंचल, कितने चौराहे जैसे बेहतरीन उपन्यास समेत कहानियों और सफल गीतों को लिखने वाले रेणु को राजनीतिक जीवन में कामयाबी नहीं मिली। राजनीति में उनका अनुभव इतना खराब रहा कि वह हमेशा इससे दूर रहने की कसम खाने को मजबूर हो गए। रेणु के उपन्यास मारे गए गुलफाम के किरदार हीरामन ने तीन कसमें खाई थीं तो जब उन्होंने राजनीति से दूर रहने की शपथ ली तो लोगों ने उसे रेणु की चौथी कसम कहना शुरू कर दिया। चुनाव प्रचार के दौरान उनके मंच पर देश के दिग्गज लेखकों और कवियों की महफिल सजती थीं। वह खुद लोगों को किस्से-कहानियां, गीत और भजन सुनाते थे। उनकी जनसभाओं में खूब भीड़ उमड़ती थी, लेकिन ये वोट में तब्दील नहीं हो पाई। रेणु ने चुनाव प्रचार भी बाकी नेताओं से अलग अंदाज में किया गया था।
- रेणु जी को मिले थे दस फीसदी वोट :
चुनाव में सरयू मिश्रा 48 फीसदी वोट हासिल कर जीत गए। लखन लाल कपूर को 26, बीजेएस प्रत्याशी जय नंदन को 13 और रेणु को 10 फीसदी वोट मिले थे।
रेणु के छोटे पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय के मुताबिक, 1972 से ही रेणु परिवार का राजनीति में खूब इस्तेमाल होता रहा। बता दें कि फिल्म तीसरी कसम उनके उपन्यास मारे गए गुलफाम पर ही बनी थी।
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