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    अष्टयाम का इतिहास तीन सौ साल पुराना

    By JagranEdited By:
    Updated: Fri, 14 Apr 2017 06:36 PM (IST)

    अररिया। प्रभु से अपनी अरदास लगाने की अभिनव परिपाटी है अष्टयाम और सीमांचल के भोलेभाले ग्रामीण्

    अष्टयाम का इतिहास तीन सौ साल पुराना

    अररिया। प्रभु से अपनी अरदास लगाने की अभिनव परिपाटी है अष्टयाम और सीमांचल के भोलेभाले ग्रामीण सदियों से इस बात के कायल रहे हैं कि वे प्रभु से निश्छल मन से जो भी मांगेगे, वह जरूर पूरा होगा। शायद यही वजह है कि यहां के गांवों में जब भी वर्षा की कमी होती है अथवा कोई कुदरती विपत्ति आती है तो लोग अष्टयाम का आयोजन करते हैं और इसके बाद शुरू हो जाता है राम-कृष्ण के नाम का अखंड संकीर्तन, जो तब तक चलता रहता है जब तक प्रभु अपने भक्तों की मुराद पूरी नहीं कर देते।

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    क्या है अष्टयाम का इतिहास

    जानकारों की मानें तो राम-कृष्ण के नाम कीर्तन से अपनी बात मनवाने की पहली सार्थक कोशिश सीमावर्ती बंगाल के नवद्वीप इलाके से प्रारंभ हुई थी, जब भक्त शरोमणि चैतन्य महाप्रभु ने मुर्शिदाबाद के नवाब की एक जनविरोधी आज्ञा के विरुद्ध सैकड़ों कीर्तनियों के साथ नाम संकीर्तन की शुरूआत कर दी थी। आचार्य चैतन्य के भक्ति-हठ के सामने नवाब को नत मस्तक होना पड़ा था। उसके बाद से यह बंगाल सहित बिहार व सीमापार नेपाल के गांवों का एक नियमित आयोजन बन गया और प्रत्येक गांव में अष्टयाम का आयोजन होने लगा।

    सौ साल पहले इस इलाके में नारायण संकीर्तन महासभा का गठन किया गया था। यह महासभा अष्टयाम जैसे आयोजनों को बढ़ावा देती थी और इससे जुड़े विद्वान लोगों को भक्ति की शक्ति के बारे में बताते रहते थे। अररिया प्रखंड के मदनपुर निवासी समाजसेवी नंद मोहन झा, खमगड़ा के ज्यौतिषी विद्याधर झा और राम सुंदर झा जैसे प्रबुद्ध-जन इस महासभा से जुड़े थे और उन्होंने अष्टयाम का खूब प्रचार प्रसार किया। चंपानगर इस्टेट के राज कुमार श्यामानंद ¨सह किसी भी अष्टयाम में आमंत्रण मिलने पर स्वयं पहुंचते थे और वहां राम नाम का गायन करते थे।

    अष्टयाम के माध्यम से कुरीति व छुआछूत पर हुआ सार्थक प्रहार

    अष्टयाम जैसे आयोजनों के माध्यम से संपूर्ण सीमांचल में विभिन्न सामाजिक कुरीति व छुआछूत जैसी बुराईयों पर सार्थक प्रहार हुआ। कई बार तो राज कुमार श्यामानंद ¨सह अष्टयाम के अवसर पर ही अश्पृश्य माने जाने वाले लोगों के घर जाकर भोजन भी करते थे।