लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन हैं आस्था के नाम पर महिलाओं से भेदभाव के मामले
आस्था के नाम पर महिलाओं से भेदभाव के कुछ मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय से विचाराधीन हैं। इनमें कुछ तो ऐसे भी हैं जिनपर कोर्ट अपना फैसला तक सुना चुका है।
नई दिल्ली। भारत में आस्था से जुड़े कुछ मामले ऐसे रहे हैं जो काफी समय से कोर्ट के विचाराधीन रहे हैं। ऐसे मामलों में कानून और आस्था के बीच कई बार टकराव को कई बार देखा गया है। दरअसल, आस्था से जुड़े मामलों में सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर अब तक काफी कुछ होता आया है। जैसे शबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है, वहीं शनि शिग्नापुर मंदिर में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इस पर विवाद बरकरार है। इन विवाद की एक वजह सिर्फ पुरुषों की ही मानसिकता नहीं है बल्कि कई महिलाएं भी इस तरह की बाध्यताओं को सही मानती हैं और कुछ जगहों पर महिलाओं के प्रवेश को लेकर खुश नहीं हैं। वहींं भारतीय संविधान में कहीं कोई धार्मिक बाध्यता नहीं है। न ही लिंगभेद को लेकर कहीं प्रतिबंध नहीं लगाया है।
गौरतलब है कि ये सभी मामले आस्था और महिलाओं से जुड़े हैं और पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बैंच ने इस पर सुनवाई भी की थी। इस सुनवाई के दौरान विभिन्न मामलों से जुड़े वकीलों में कुछ बातों को लेकर मतभेद भी सामने आया था, जिसके बाद वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट से ही सुनवाई का मुद्दा तय करने का अधिकार दिया था। इस 9 सदस्यीय बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस आर भानुमती, जस्टिस सुभाष रेड्डी, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस एमएम शांतानागौर, जस्टिस एसए नजीर और जस्टिस सूर्यकांत शामिल हैं।
शनि शिंगणापुर मंदिर समेत देश के कई दूसरे मंदिर ऐसे हैं जहां पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित माना जाता है। इनमें हरियाणा का कार्तिकेय मंदिर, सतारा, महाराष्ट्र का घटई देवी मंदिर, असम का कीर्तन घर जिसे वैष्णव मठ कहा जाता है और यहां पर इंदिरा गांधी को भी प्रवेश करने से रोक दिया गया था। इसके अलावा बोकारो, झारखंड का मंगल चांडी मंदिर, छत्तीसगढ़ का मावली माता मंदिर, ओडिशा का बिमला माता मंदिर, असम का कामख्या देवी मंदिर, केरल का अवधूत देवी मंदिर और सबरीमाला मंदिर में भी महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।
सबरीमाला मंदिर
सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर 2018 को सबरीमाला मंदिर में हर आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश का आदेश दिया था। कोर्ट ने अपने आदेश में इस मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर लगी पाबंदी को कोर्ट ने लैंगिक भेदभाव करार दिया था।
महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश
सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट में मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को हटाने के लिए याचिका दायर की गई थी। पुणे की याचिकाकर्ता यास्मीन और उनके पति जुबैर अहमद पीरजादे ने ये याचिका दायर कर सरकारी अफसरों और वक्फ बोर्ड जैसे मुस्लिम संगठनों को महिलाओं को देश की सभी मस्जिदों में प्रवेश और नमाज पढ़ने की अनुमति देने की अपील की गई थी। आपको बता दें कि भारत में जमात-ए-इस्लामी संगठन के तहत आने वाली मस्जिदों में महिलाएं प्रवेश कर सकती हैं, लेकिन सुन्नी समेत अन्य पंथों की मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर पाबंदी लगी हुई है।
दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय में खतना प्रथा
वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट में दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के खतना करने की प्रथा के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता ने इस प्रथा के आड़ में निजता का उल्लंघन करने का आरोप लगाया था। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने भी इस प्रथा को लेकर कड़ी टिप्पणी की थी वहीं केंद्र ने भी इस प्रथा को रोकने के समर्थन में अपनी बात कोर्ट के समक्ष कही थी। याचिकाकर्ता की दलील थी कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। यूएन इसको मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता है और वर्ष 2012 में इस प्रथा को पूरी दुनिया में खत्म करने को लेकर एक प्रस्ताव भी पास कर चुका है। आपको बता दें कि भारत में बोहरा आबादी आम तौर पर गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में रहती है। 10 लाख से अधिक आबादी वाला यह समाज काफी समृद्ध है। इतना ही नहीं यह समुदाय भारत के सबसे ज्यादा शिक्षित समुदायों में से एक भी है।
लड़की के गैर-पारसी से शादी करने पर पारसी समुदाय के अनुष्ठानों में शामिल होने पर रोक
वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट में गुजरात हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी है जिसमें हाईकोर्ट ने कहा है कि अगर कोई महिला किसी दूसरे धर्म के पुरुष से शादी करती है तो माना जाएगा कि उसने पति का धर्म अपना लिया है। ऐसा कर वह अपने पुराने धर्म को मानने का अधिकार खो देगी। इस याचिका को गुजरात के गुलरुख एम गुप्ता ने दायर किया था। पारसी महिला गुलरुख ने 1991 में एक हिंदू से शादी करने के बाद भी वह पारसी धर्म का पालन करती रही। गुलरुख ने इस याचिका बताया था एक अन्य पारसी महिला दिलबार की माता का निधन हुआ तो दिलबार को उसके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने दिया गया था। वलसाड पारसी अंजुमन ट्रस्ट का कहना था कि क्योंकि उसने हिंदू से शादी की है इसलिए वह पारसी नहीं रही है। पारसी पंचायत ने भी इसको पारसी पर्सनल लॉ का मामला मानते हुए फैसले को सही कहा था। गुजरात हाई कोर्ट ने भी इसको सही माना था। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून में ऐसा कहीं नहीं है की अगर कोई महिला दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी कर ले तो उसे अपने धर्म की रीति रिवाज में शामिल नहीं किया जाएगा।
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