रिजवान अंसारी। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर दिन एक साल से कम आयु के लगभग 2,350 बच्चों की मौत हो जाती है। 2014 में देश में पैदा होने वाले हर 1,000 बच्चों में से 39 ने अपना पहला जन्मदिन नहीं देखा। मौजूदा वक्त में यह आंकड़ा 33 है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक भारत में सालाना लगभग 2 करोड़ 60 लाख बच्चों का जन्म होता है। इनमें से 8 लाख 50 हजार नवजातों की हर साल मृत्यु हो जाती है। इन नवजातों की मृत्यु का कारण जन्म संबंधी जटिलताएं, सेप्सिस, इंफेक्शन, डायरिया, सांस लेने में दिक्कत, हाइपोथर्मिया और कम वजन से जुड़ी समस्याओं में से कुछ भी हो सकता है।

यूनिसेफ ने भी माना है कि 80 फीसद मौतों के पीछे समय से पूर्व होने वाले जन्म, जन्म के समय होने वाली जटिलता, निमोनिया तथा संक्रमण की समस्या जैसे कारण जिम्मेदार हैं। संसाधनों की कमी की बात करें तो भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का खासा अभाव देखा जा रहा है। डॉक्टरों और नर्सों की संख्या में कमी भारत की स्वास्थ्य समस्याओं के मुख्य कारण हैं। भारत के अस्पतालों में मरीजों के लिए उपलब्ध बेडों की संख्या भी संतोषजनक नहीं है। प्रति हजार लोगों पर ब्राजील में जहां बेडों की संख्या 2.3 है, वहीं भारत में बेडों की उपलब्धता केवल 0.7 है।

एक अध्ययन के अनुसार भारत के अस्पतालों में चार लाख डॉक्टर, 40 लाख नर्स और 7 लाख बिस्तरों की कमी है। इससे इतर नवजातों की मौत के कारणों में सामाजिक कारण भी निहित हैं। बेटा- बेटी में भेदभाव भी नवजात मृत्यु दर में वृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण है। यूनिसेफ के मुताबिक दुनिया के बड़े देशों में भारत एकमात्र देश है जहां लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में मृत्यु दर अधिक है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अध्ययन से पता चला है कि 2015 के मुकाबले 2016 में पांच वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की मृत्यु दर में 11 फीसद का इजाफा हुआ है।

एक बात जो गौर करने वाली है वह यह कि अस्पतालों में मरने वाले अधिकांश बच्चे समाज के निचले तबके के हैं। यह तथ्य केवल स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों की पोल नहीं खोलता, बल्कि सामाजिक संरचना में व्याप्त खामियों को भी उजागर करता है। कोटा, मुजफ्फरपुर, गोरखपुर में हुई मौतें घूम-फिर कर कुपोषण, डॉक्टरों की कमी, खोखली पड़ी तीन स्तरीय चिकित्सा व्यवस्था, प्रशासनिक अक्षमता, अशिक्षा और जागरूकता की कमी के उन सभी पुराने रेशों से जुड़ती हैं जिसकी झलक हम चरमराती जनस्वास्थ्य व्यवस्था में रोज देखते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी की वजह से अक्सर गर्भवती महिलाओं में पोषण की कमी की समस्या रहती है। यानी महिलाएं मां बनने से पहले ही कुपोषण का शिकार हो जाती हैं। लिहाजा प्री-टर्म डिलिवरी का खतरा हमेशा बना रहता है। यानी समय से पहले प्रसव हो जाने से बच्चे संक्रमण के प्रति अत्यधिक सुभेद्य हो जाते हैं जिन पर बीमार होने का खतरा हमेशा बना रहता है। लांसेट में सितंबर 2019 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच साल आयु तक के बच्चों की मौत के 68 फीसद मामलों का कारण कुपोषण है।

समझना होगा कि बच्चों की मृत्यु न केवल देश के मानव संसाधन, बल्कि इससे भी आगे मानव पूंजी की बर्बादी है। यकीनन इससे देश की प्रगति और उसके विकास में रुकावट पैदा होती है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हम एक स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण तभी कर सकते हैं जब हमारी शिक्षा का स्तर माकूल हो। शिक्षा के अभाव में लोगों में जागरूकता की कमी होती है जो न केवल बाल विवाह को बढ़ावा देता है, बल्कि बेटा-बेटी में भेदभाव को भी जन्म देता है। यह शिशुओं की मृत्यु की बड़ी वजहों में से एक है। अशिक्षित महिला मां बनने पर शिशुओं की बेहतर देखभाल नहीं कर पाती। फिर कम उम्र में लड़कियों की शादी के उपरांत मां बनने पर मां और शिशु दोनों को ही जान का खतरा रहता है। लिहाजा हमारी सरकारों को सबसे पहले शिक्षा तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने की जरूरत है। सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव होना कोई हैरानी की बात नहीं है। ‘नई स्वास्थ्य नीति’ के तहत जीडीपी का 2.5 फीसद स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने का प्रावधान किया है, पर मौजूदा वक्त में भारत सरकार इसका महज 1.15 फीसद हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर रही है। यही कारण है कि अस्पतालों में सुविधाओं का खासा अभाव देखने को मिल रहा है।

यह एक पैटर्न बन चुका है कि किसी भी बड़ी त्रासदी के समय शासन-प्रशासन जागता है और कुछ दिन बीत जाने के बाद फिर सो जाता है। दरअसल सरकार ने करुणा और चिंता के चश्मे से अपने नागरिकों की मौतों को देखना बंद कर दिया है। दुर्भाग्य से इस तरह की उदासीनता व्यापक स्तर पर विद्यमान है। इस उदासीनता में गांव के एक मुखिया से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के कुछ डॉक्टर और राजनीतिक नेता तक शामिल हैं। दरअसल इसकी एक लंबी शृंखला है जो अंदर ही अंदर सिस्टम को खोखला कर रही है। कुल मिलाकर बात यह है कि एक स्वस्थ्य राष्ट्र के निर्माण के लिए नीति-नियंताओं को अपनी ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति’ को और भी प्रबल बनाने की जरूरत है। इस मामले की गंभीरता को समझने की जरूरत है।

(लेखक स्‍वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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