अपनी ही नसीहतों के खिलाफ खड़े आडवाणी
संगठन और सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ से निकलता देखकर भाजपा के पितृ-पुरुष लालकृष्ण आडवाणी अपनी ही सींची पार्टी के खिलाफ खड़े हो गए हैं। चुनाव से ठीक 11 महीने पहले भाजपा के कुछ अहम पदों से इस्तीफा देकर आडवाणी ने पार्टी का भरपूर नुकसान कर दिया। गोवा में भाजपा नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह व ऊ
नई दिल्ली, [प्रशांत मिश्र]। संगठन और सत्ता का रिमोट कंट्रोल हाथ से निकलता देखकर भाजपा के पितृ-पुरुष लालकृष्ण आडवाणी अपनी ही सींची पार्टी के खिलाफ खड़े हो गए हैं। चुनाव से ठीक 11 महीने पहले भाजपा के कुछ अहम पदों से इस्तीफा देकर आडवाणी ने पार्टी का भरपूर नुकसान कर दिया। गोवा में भाजपा नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह व ऊर्जा भरने का जो प्रयास किया, उस पर पानी फिर गया। गोवा में लिए गए फैसलों को लेकर उनकी असहमति वाजिब हो सकती है और उनके घर के बाहर हुआ कथित मोदी समर्थकों का प्रदर्शन तो बिलकुल ही गलत था, लेकिन पार्टी के फैसलों के खिलाफ इस्तीफे जैसा उनका कदम भी सही नहीं ठहराया जा सकता।
इतिहास गवाह है कि आडवाणी भाजपा को लगातार अनुशासन, आंतरिक लोकतंत्र, शुचिता पर नसीहतें देते रहे हैं, लेकिन अगर बीते दो दशक में उनके राजनीतिक फैसलों की बात करें तो वह कई बार अपने ही सिद्धांतों को खारिज करते नजर आएं हैं। यह आडवाणी की ही दलील थी कि पार्टी को किसी चेहरे के साथ चुनावी मैदान में उतरना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी को 1995 में भाजपा का चुनावी चेहरा बनाने का एलान करने वाले भी आडवाणी ही थे, लेकिन 2002 आते-आते तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री आडवाणी वाजपेयी को राष्ट्रपति भवन भेजने और खुद सत्ता संभालने की चाहत संजो चुके थे। यहां तक कि वाजपेयी को राजी करने की खातिर संघ के पूर्व प्रमुख रज्जू भैय्या की भी मदद ली गई थी। तब भी तर्क यही था कि अब चेहरा बदलने की जरूरत है। इतिहास इसका भी गवाह है कि 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में चल रही राजग सरकार ने वक्त से पहले चुनाव कराने का जो फैसला लिया उसके पीछे भी आडवाणी ही थे। सभी जानते हैं कि यह फैसला सही नहीं साबित हुआ।
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भाजपा ने सत्ता के शीर्ष पद पर पहुंचने की आडवाणी की हसरत का मान रखा और उसी का नतीजा था कि 2009 लोकसभा चुनाव के दो साल पहले ही उन्हें प्रधानमंत्री पद केलिए अपना उम्मीदार घोषित कर दिया। यह एलान गुजरात में 2007 के विधानसभा चुनावों के बीच में ही किया गया था, लेकिन 2009 का जनादेश उन मनमोहन सिंह के पक्ष में आया जिन्हें आडवाणी लगातार कमजोर प्रधानमंत्री बताते रहे थे।
भाजपा में आडवाणी के योगदान को कोई नहीं नकारता। आडवाणी के इस्तीफे को एक सुर से नकारती पार्टी की प्रतिक्रिया इसकी गवाही भी देती है। जिन्ना प्रकरण केबाद से लेकर आज तक उनकी राजनीतिक ताकत का चाहे जितना क्षरण हुआ हो, लेकिन पार्टी का नेतृत्व उन्हें परिवार का बुजुर्ग और मार्गदर्शक ही मानता रहा। आखिर ऐसा क्या हो गया जो आडवाणी को अपने ही सिखाए और बढ़ाए नेताओं के फैसलों में खोट नजर आ रहा है? ध्यान रहे कि 2004 के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आडवाणी को पीढ़ीगत बदलाव केलिए संकेत और सुझाव देता रहा है। यह बात और है कि आडवाणी के पार्टी अध्यक्ष पद से हटने से लेकर 2010 में नेता विपक्ष की कुर्सी छोड़ने तक सत्ता हस्तांतरण का कोई फैसला सहज नहीं रहा।
अभी महज तीन महीने पहले भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में आडवाणी के शब्द थे-अगर भाजपा में भीतरी अनुशासन की कमी के कारण आपसी संबंधों को कमजोर होने की इजाजत दी गई तो हम पार्टी की छवि अंदरूनी मतभेदों वाले संगठन की बना देंगे।' उन्होंने स्पष्ट कहा था कि संगठन की कोई भी असहमति सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए और उसे उचित मंच पर ही उठाया जाए। यह विडंबना है कि महज तीन माह में आडवाणी पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को दी गई अपनी इसी नसीहत के खिलाफ खड़े हो गए। भाजपा में यह कल्पना भी नहीं की जाती थी कि पार्टी की कार्यकारिणी हो और आडवाणी अनुपस्थित रहें। गोवा इसका अपवाद बना। इतना ही नहीं पहली बार आडवाणी पार्टी के बहुमत से लिए गए फैसले के खिलाफ इस्तीफे की हद तक चले गए। उम्र की इस दहलीज पर वक्त आ गया है कि आडवाणी पीढ़ी में बदलाव की गूंज को सुनें भी और सहर्ष स्वीकारें भी।
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