कारगिल युद्ध में विक्रम बतरा ने दिया था अदम्य साहस का परिचय
आज से ठीक 17 वर्ष पहले कारगिल युद्ध के हीरो कै विक्रम बतरा शहीद हुए थे। एक इंटरव्यू में यह दिल मांगे मोर कहकर पूरे देश में छा गए थे।
कारगिल युद्ध के दौरान कै विक्रम बतरा ने अदम्य साहस का परिचय दिया था। इस अदम्य साहस के लिए कै बतरा को मरणोपरांत परम वीर चक्र से नवाजा गया था। विक्रम बतरा कारगिल युद्ध में उस समय सुर्खियों में आए थे, जब उनकी टीम का चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ फोटो मीडिया में आया था और उन्होंने एक इंटरव्यू में इस जीत के बाद कहा था कि यह दिल मांगे मोर, इसके बाद विक्रम बतरा पूरे देश में छा गए थे। आज से ठीक 17 साल पहले आज के ही दिन कै विक्रम बतरा ने शहादत का जाम पिया था। आइए जानते हैं उनके जीवन के बारे में कुछ बातें:
विक्रम बतरा के हैं एक जुड़वा भाई
पालमपुर निवासी जीएल बतरा और कमलकांता बतरा के घर नौ सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। माता कमलकांता की श्रीरामचरित मानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश विशाल। जुड़वा होने के कारण विशाल भी विक्रम बतरा की तरह ही दिखते है।
कै बतरा की प्रारंभिक पढ़ाई पहले डीएवी स्कूल पालमपुर में हुई, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल तो रहते ही थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़.चढ़कर भाग लेने का भी जज्वा था।
ठुकरा दी थी हांगकांग में मिल रही मर्चेन्ट नेवी की नौकरी
जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी। लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया।
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बीएससी के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें छह दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए।
पहली जीत पर कहा था, यह दिल मांगे मोर
पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बतरा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बतरा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। विक्रम बतरा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष यह दिल मांगे मोर कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम का नाम पाकस्तिान सेना एक कोड के रूप में शेरशाह रख दिया। विक्रम के नाम से पाक सेना को इतना खौफ हो गया कि पाक सेना अपने रेडियो संदेशों में भी कै बतरा को शेरशाह पुकारने लगी।
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अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बतरा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। 7 जुलाई 1999 को सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। इसी दौरान एक अन्य लेफ्टिनेंट नवीन घायल हो गए। उन्हें बचाने के लिए विक्रम बंकर से बाहर आ गए। इस दौरान एक सूबेदार ने कहा नहीं साहब आप नहीं मैं जाता हूं। इस पर विक्रम ने उत्तर दिया कि तू बीबी बच्चों वाला है, पीछे हट।
नवीन को बचाते समय दुश्मन की एक गोली विक्रम की छाती में लग गई और कुछ देर बाद विक्रम ने जय माता की कहकर अंतिम सांस ली।
विक्रम बतरा के शहीद होने के बाद उनकी टुकड़ी के सैनिक इतने क्रोध में आए कि उन्होंने दुश्मन की गोलियों की परवाह न करते हुए उन्हें चोटी 4875 से परास्त कर चोटी को फतह कर लिया।
परमवीर चक्र सम्मान से नवाजे गए थे कै बतरा
इस अदम्य साहस के लिए कैप्टन विक्रम बतरा को 15 अगस्त 1999 को परम वीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जीएल बतरा ने प्राप्त किया। विक्रम बतरा ने 18 वर्ष की आयु में ही अपने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। वह नेत्र बैंक के कार्ड को हमेशा अपने पास रखते थे।