इजरायल ईरान संघर्ष में पाकिस्तान की क्या रही भूमिका, 'भाई' ईरान की परमाणु हथियार बनाने में क्यों नहीं की मदद?
ईरान-इजरायल के बीच जंग जैसे हालात पैदा हो गए थे। अमेरिका ने खुलकर इजरायल का न सिर्फ साथ दिया बल्कि ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमले भी किए। सवाल यह है कि मुस्लिम देशों में खुद को ईरान का भाई बताने वाले पाकिस्तान ने तेहरान की परमाणु हथियार विकसित करने में खुले तौर पर मदद क्यों नहीं की?
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। हाल ही में ईरान-इजरायल के बीच जंग जैसे हालात पैदा हो गए थे। अमेरिका ने खुलकर इजरायल का न सिर्फ साथ दिया, बल्कि ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमले भी किए। हालांकि, 24 जून को ईरान-इजरायल के बीच सीजफायर भी हो गया। लेकिन सवाल यह है कि मुस्लिम देशों में खुद को ईरान का भाई बताने वाले पाकिस्तान ने तेहरान की परमाणु हथियार विकसित करने में खुले तौर पर मदद क्यों नहीं की, पाकिस्तान ने ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने से लगातार परहेज क्यों किया?
पाकिस्तान ने 1998 में परमाणु-सशस्त्र देश बन गया, जबकि ईरान लंबे समय से आधिकारिक तौर पर शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु प्रौद्योगिकी की तलाश में है। दोनों मुस्लिम बाहुल्य देश हैं और दोनों के बीच कुछ ऐतिहासिक सहयोग होने के बावजूद पाकिस्तान ने ईरान को परमाणु हथियार बनाने में खुलकर या फिर यूं कहें कि आधिकारिक तौर पर मदद नहीं की।
1980 और 1990 के दशक में पाकिस्तान के वैज्ञानिक ए.क्यू. खान ने ईरान को गोपनीय तौर पर संवेदनशील सेंट्रीफ्यूज प्रौद्योगिकी और ब्लूप्रिंट समेत जरूरी चीजें दी थीं, जिसने ईरान की यूरेनियम संवर्धन क्षमताओं को महत्वपूर्ण रूप से उन्नत किया था।
ईरान ने नतांज न्यूक्लियर साइट में जिन सेंट्रीफ्यूज डिजाइनों का इस्तेमाल किया है, वे पाकिस्तान की कहूटा सुविधा में विकसित किए गए डिजाइनों से काफी मिलते-जुलते थे। हाल ही में इजरायल और अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों को निशाना बनाया। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने कंफर्म किया है कि हमलों में ऊपर-जमीन की सुविधाएं और भूमिगत सेंट्रीफ्यूज हॉल दोनों नष्ट हो गए हैं।
पाकिस्तान ईरान की मदद के लिए क्यों आगे नहीं आया?
- अंतरराष्ट्रीय दबाव का डर: 2000 के दशक की शुरुआत में जब ए क्यू खान के नेटवर्क का खुलासा हुआ था, उस वक्त पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय जांच के घेरे में आ गया था। उस पर अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की ओर से परमाणु प्रसार कार्यक्रम को रोकने के लिए दबाव बनाया गया था। पाकिस्तान पर आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध लगा दिए गए थे। ऐसे में अगर पाकिस्तान ईरान की परमाणु हथियार महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में मदद करता है तो यह पाकिस्तान के राष्ट्रीय हितों के लिए जोखिम भरा हो सकता है।
- स्ट्रेटजिक कैलकुलेशन: पाकिस्तान ने अपना परमाणु कार्यक्रम भारत से बराबरी करने के लिए शुरू किया था, न कि ईरान या किसी अन्य देश को सशक्त बनाने के लिए। ईरान को परमाणु बम बनाने के लिए खुलकर सहायता करने पर क्षेत्रीय संतुलन और पाकिस्तान की अपनी रणनीतिक स्थिति गड़बड़ा सकती है। आधिकारिक तौर पर पाकिस्तान एकमात्र परमाणु शक्ति वाला देश है।
- सांप्रदायिक गतिशीलता: ईरान और पाकिस्तान दोनों मुस्लिम बाहुल्य देश हैं, लेकिन पाकिस्तान में प्रमुख तौर पर सुन्नी समुदाय है तो ईरान में शिया। दोनों के बीच सांप्रदायिक विभाजन और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं में अंतर है। पाकिस्तान ने सऊदी अरब और खाड़ी देशों से भी संबंध सुधारने की कोशिश की है, जो ईरान के प्रतिद्वंद्वी हैं।
- अंतरराष्ट्रीय कानून और राजनयिक बधाएं: पाकिस्तान परमाणु अप्रसार संधि (NPT) का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है। ए.क्यू. खान नेटवर्क का खुलासा होने के बाद से उस पर लगातार परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने का दबाव बनाया जाता रहा है। जबकि ईरान एनपीटी हस्ताक्षरकर्ता है, ऐसे में अगर पाकिस्तान खुलकर सहायता करता है तो उस पर फिर प्रतिबंध लगने का खतरा मंडराने लगेगा।
इजरायल-ईरान संघर्ष: क्या था पाकिस्तान का रुख?
इजरायल-ईरान संघर्ष के दौरान जब अमेरिका ने ईरानी परमाणु ठिकानों को तबाह किया तो पाकिस्तान न सिर्फ ईरान को समर्थन दिया, बल्कि अमेरिकी अमेरिकी हमले की निंदा भी की और सभी मुस्लिम एकता का आह्वान भी किया।
इसके बाद कयास लगाए जा रहे थे कि अगर विवाद बड़ा तो पाकिस्तान ईरान के दुश्मनों पर परमाणु हमले कर सकता है। हालांकि, इस तरह के दावों को पाकिस्तानी नेताओं ने खारिज कर दिया था।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।