Protests in China: चीन में कठोर प्रतिबंधों के खिलाफ प्रदर्शन के क्या हैं मायने, चीन में बोलने की कितनी आजादी?
Protests in China ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस विरोध का असर चीन की कम्युनिस्ट शासन पर पड़ेगा? क्या शी चिनफिंग की कुर्सी खतरे में है? इसके साथ इस कड़ी में यह भी बताएंगे कि चीन में विचारों की अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है?
नई दिल्ली, जेएनएन। Protests in China: चीन में कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए कठोर प्रतिबंधों के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन चल रहे हैं। प्रदर्शनकारी चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग को पद छोड़ने और देश में लोकतंत्र की बहाली के नारे लगा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस विरोध का असर चीन की कम्युनिस्ट शासन पर पड़ेगा? क्या शी चिनफिंग की कुर्सी खतरे में है? इसके साथ इस कड़ी में यह भी बताएंगे कि चीन में विचारों की अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है? क्या भारत की तरह लोगों को बोलने की आजादी है।
माओ से लेकर शी चिनफिंग का निरंकुश तंत्र
1- विदेश मामलों के जानकार प्रो हर्ष वी पंत का कहना है कि चीनी गणतंत्र के संस्थापक माओ ने अंतहीन ताकत का मनचाहा प्रयोग किया था। माओ ने चीन में सत्ता का बेजा इस्तेमाल किया था। हालांकि, माओ के कार्यकाल के बाद चीन के संविधान में संशोधन किया गया। चीन में सत्ता में अधिकतम दस वर्षों तक रहने का संवैधानिक प्रावधान किया गया था, ताकि भविष्य में कोई माओ की तरह सत्ता का दुरुपयोग नहीं कर सके। संविधान संशोधन का मकसद सारी ताकत एक हाथ में केंद्रित न रहे। माओ के शासन काल में चीन ने सबसे बड़ी भुखमरी देखी और उनकी सांस्कृतिक क्रांति भी चीन के लिए बड़ी त्रासदी साबित हुई थी।
2- प्रो हर्ष पंत का कहना है कि भारत की तरह चीन में आम नागरिकों को विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। 1949 में जब चीन की मुख्य भूमि पर साम्यवादियों का कब्जा हुआ था तब माओ-त्से-तुंग और चाउ एन लाई के नेतृत्व में साम्यवादी पार्टी की सरकार ने लोगों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बुरी तरह कुचल दिया था। उस वक्त जो भी व्यक्ति चीन की सरकार के खिलाफ आवाज उठाता था उसे ‘लेबर कैंप’ में भेज दिया जाता था, जहां उससे इतना कठोर काम कराया जाता था कि कुछ दिनों में ही उसकी मृत्यु हो जाती थी।
3- प्रो पंत ने कहा कि चीन में ‘देंग’ सत्ता में आए तब उन्होंने निजीकरण का दौर शुरू किया और लोगों को बहुत हद तक विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी भी दी। हालांकि, यह स्वतंत्रता भी बहुत सीमित थी। वर्ष 2012 में चीन में शी चिनफिंग सत्ता में आए तब उन्होंने घोषणा की भविष्य में चीन में रूल आफ ला होगा। यानी कानून का शासन होगा। कानून के मुताबिक सरकार चलेगी आम जनता को न्याय मिलेगा। शी ने कहा कि चीन की सरकार मानवाधिकार का सम्मान करेगी और प्रत्येक नागरिक को पूरी तरह से समान अधिकार मिलेंगे। चीन के नागरिक अपने विचारों को बिना किसी भय के रख सकेंगे।
4- शी के कार्यकाल में ऐसा लगा कि मानो चीन में सब बदल जाएगा, लेकिन बाद में शी अपने वादों से मुकर गए। शी के दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आया। शी की दृढ़ आस्था थी कि चीन को सशक्त बनाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत बनाना होगा। शी ने कहा कि देश में ऊंचा स्थान कम्युनिस्ट पार्टी का है, जो पार्टी के आदेश की अवहेलना करेगा उसे कठोर दंड दिया जाएगा। उस वक्त जिसने चीन में मानवाधिकार के खिलाफ आवाज उठाई उसे जेल में डाल दिया गया। शी के कार्यकाल में जिसने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्ष लिया था, उन्हें चीन की निर्दयी सरकार ने कठोर दंड दिया। कुछ उदारवादी लोग जेल में ही मर गए।
5- प्रो पंत ने कहा कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है। यानी एक पार्टी की सरकार है। चीन में भारत की तरह लोकतंत्र नहीं है। भारत की तरह चीन में लोगों को मौलिक अधिकार नहीं दिए गए हैं, न ही आप इन अधिकारों के हनन के मामले को चुनौती दे सकते हैं। पार्टी का संविधान ही सर्वोच्च है। इसलिए चीन में एक तरह का अधिनायकवाद का शासन है, जहां अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है।
चीन में और मजबूत हुए चिनफिंग
राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने पिछले वर्ष सीपीसी की राष्ट्रीय कांग्रेस के बाद पांच वर्ष के अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत की थी। वर्तमान में वह CPC और सेना के भी प्रमुख हैं तथा पिछले साल सात सदस्यीय जो नेतृत्व सामने आया था उसमें उनका कोई भी भावी उत्तराधिकारी नहीं है। गौरतलब है कि 11 मार्च को चीनी संविधान का संशोधन प्रस्ताव 13वीं NPC के पहले पूर्णाधिवेशन में पारित किया गया। वर्ष 1982 के पश्चात चीन में मौजूदा संविधान लागू होने के बाद पांचवीं बार हुआ संशोधन है।