Bangladesh Unrest: बांग्लादेश की मुक्ति और अधूरा वादा… बड़ा सवाल- हसीना के देश छोड़ने बाद किस दिशा में जाएगा पड़ोसी देश
बांग्लादेश के जनक मुजीबुर रहमान ने ऐसे देश की कल्पना की थी जो धर्मनिरपेक्ष होगा। वह देश को इस दिशा में आगे बढ़ाते इससे पहले 1975 में उनकी हत्या कर दी गई। फिर उनकी बेटी शेख हसीना ने देश को आर्थिक रूप से आगे बढ़ाया। मगर कट्टपरंथियों और देश विरोधी ताकतों ने उन्हें देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। अब देखना है कि किस दिशा में जाएगा बांग्लादेश।
शशांक शेखर बाजपेई। पड़ोसी देश बांग्लादेश के लिए 1971 के दशकों बाद भी लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिए चुनौतियां बनी हुई हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना हाल ही में इस्तीफा देने के बाद देश छोड़ने को मजबूर हो गईं। निर्वासित होकर वह फिलहाल भारत में शरण लिए हुए हैं। ऐसे में अब साल 1971 में अपनी मुक्ति के बाद से बांग्लादेश को खुद अपनी प्रगति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा।
आर्थिक वृद्धि और विकास के बावजूद, बांग्लादेश बढ़ती नफरत भरी भाषा, भ्रष्टाचार और लोकतंत्र के लिए चुनौतियों से जूझ रहा है। दरअसल, भारत का विभाजन होने के बाद 1947 में पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान बने थे।
साल 1970 के चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान की भारी जीत ने संयुक्त पाकिस्तान की उम्मीद जगाई। मगर, राजनीतिक तनाव और सैन्य हस्तक्षेप के कारण क्रूर दमन हुआ।
मुक्ति वाहिनी ने दिलाई आजादी
ऐसे समय में छात्रों, युवाओं और किसानों की गुरिल्ला सेना ने मिलकर मुक्ति वाहिनी बनाई। आजाद बांग्लादेश की लड़ाई में मुक्ति वाहिनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और साल 1971 में बांग्लादेश का जन्म हुआ।
इस युद्ध में भारत ने बांग्लादेश का साथ दिया था। तब देश के पहले नेता शेख मुजीबुर रहमान को युद्ध, अकाल और भ्रष्टाचार से तबाह हुए देश को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
मुजीबुर रहमान की हत्या ने बदला भविष्य
इससे पहले कि चीजें पटरी पर आतीं, साल 1975 में मुजीबुर रहमान की हत्या कर दी गई। उस वक्त उनके परिवार के कई लोगों का भी कत्ल कर दिया गया। हालांकि, उस दौरान उनकी बेटी शेख हसीना विदेश में होने की वजह से जिंदा बच गई थी।
मगर, इस घटना ने इतिहास को एक महत्वपूर्ण मोड़ दे दिया। इस घटना से धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु बांग्लादेश बनाने का मुजीबुर रहमान का सपना खतरे में पड़ गया। वो सपना आज तक परवान नहीं चढ़ सका है।
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घर में मचा था मौत का तांडव
- युद्ध से बर्बाद हो चुके बांग्लादेश को पटरी पर लाने में लगे थे बंग बंधु।
- साल 1975 आते-आते चीजें मुजीबुर के हाथ से बाहर जाने लगी थीं।
- देश में भ्रष्टाचार बढ़ने लगा और भाई-भतीजावाद के आरोप लगने लगे।
- इसे लेकर आम लोगों के साथ ही सेना में भी असंतोष बढ़ने लगा था।
- 15 अगस्त को सेना के जूनियर जवानों ने उनके घर पर धावा बोला।
- मुजीबुर ने गोलियों की आवाज सुनकर सेनाध्यक्ष को फोन किया।
- उन्होंने जनरल शफीउल्लाह से सैनिकों को वापस बुलाने को कहा।
- थोड़ी देर बार सेना के जवानों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
- बेगम मुजीब और फिर उनके दूसरे बेटे जमाल की हत्या की गई।
- फिर दोनों बहुओं और 10 साल के छोटे बेटे को भी मार दिया गया।
बाद की सरकारें नहीं संभाल सकीं विरासत
इस्लामिक समूहों के बढ़ते प्रभाव और सांप्रदायिक हिंसा के अपराधियों के लिए जवाबदेही की कमी से बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता के खत्म होने की चिंताएं बढ़ा दी हैं। देश में कई लोगों का मानना है कि लगातार सरकारें 1971 के मुक्ति युद्ध की विरासत को संभाल नहीं सकीं।
कुछ लोगों की चिंता हैं कि धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद और सहिष्णुता के जिन आदर्शों ने मुक्ति संघर्ष को प्रेरित किया, उन्हें कमजोर किया जा रहा है। फिलहाल बांग्लादेश के हालात इस बात की तस्दीक करते भी दिख रहे हैं।
हसीना के नेतृत्व में आगे बढ़ा बांग्लादेश
शेख हसीना ने जून 1996 से जुलाई 2001 तक बांग्लादेश के 10वें प्रधानमंत्री के रूप में देश की कमान संभाली। इसके बाद जनवरी 2009 से अगस्त 2024 तक वह पीएम रहीं। अपने कुल मिलाकर करीब 20 साल के कार्यकाल के दौरान हसीना बांग्लादेश को महत्वपूर्ण आर्थिक विकास के रास्ते पर ले गईं।
धीरे-धीरे बांग्लादेश कपड़ों और फार्मास्यूटिकल्स का एक प्रमुख निर्यातक बन गया। रोहिंग्या शरणार्थियों को शरण देने के बांग्लादेश के फैसले ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तारीफ हुई। मगर, जिस तरह से शेख हसीना ने चरमपंथी संगठनों पर पाबंदी लगाई और अपने राजनीतिक विरोधियों पर शिकंजा कसा, उसे लेकर देश में एक बड़ा तबका उनके खिलाफ खड़ा हो गया।
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जमात-ए-इस्लामी पर कार्रवाई
शेख हसीना ने पीएम पद से हटने से पहले आतंकवाद विरोधी कानून के तहत कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके साथ ही इसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर को भी बैन कर दिया था। इसके बाद बांग्लादेश में पिछले कई दिनों से चल रहा विद्रोह मुखर हो गया था।
शेख हसीना के बेटे सजीब ने भी कहा है कि देश में हुए घटनाक्रम में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ था। इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि छात्रों के आंदोलन की आड़ में विदेशी ताकतों ने हसीना का तख्तापलट करने में भूमिका निभाई है।
आरक्षण के नाम पर हसीना का विरोध
मुक्ति संग्राम के सेनानियों के पोते-पोतियों को शिक्षा और रोजगार में दिए जा रहे आरक्षण के विरोध से शुरू हुआ आंदोलन हिंसक होता चला गया। प्रदर्शनकारी शेख हसीना को पद से हटाने की मांग करने लगे। आखिरकार, 5 अगस्त 2024 को सेना की तरफ से उन्हें पद छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया गया।
इसके बाद हसीना ने न सिर्फ पीएम के पद से इस्तीफा दे दिया, बल्कि अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़कर भागने के लिए भी मजबूर कर दिया। लिहाजा, यह कहना गलत नहीं होगा कि बांग्लादेश ने अपनी मुक्ति के बाद से महत्वपूर्ण प्रगति की है।
मगर, इस वक्त देश के सामने बड़ी चुनौती लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों को बचाए रखना है। साल 1971 में बने बांग्लादेश के मूल्यों को कायम रखना और पिछले अत्याचारों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करना देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है। अब देखना यह होगा कि शेख हसीना के पीएम पद से हटने के बाद देश किस दिशा में आगे जाएगा।