तीन मुल्क, तीन राजनीतिक परिवार और उनके राजनीतिक हाशिए पर पहुंचने की कहानी
दक्षिण एशिया के तीन मुल्कों भारत, पाकिस्तान और नेपाल में नेहरू-गांधी परिवार, भुट्टो और कोइराला परिवार का राजनीति में खासा दबदबा रहा है।
नई दिल्ली [ स्पेशल डेस्क ]। नेपाल में आम चुनाव में वाम दलों के गठबंधन को भारी बढ़त मिली है। आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन करने में नाकाम रही है। नेपाली कांग्रेस का जिक्र होते ही जी पी कोइराला, बी पी कोइराला और सुशील कोइराला की याद आती है। नेपाल में राजतंत्र के खिलाफ नेपाली कांग्रेस या यूं कहे कि कोइराला परिवार ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। नेपाल की राजनीति में कोइराला परिवार असर डालता रहा है। लेकिन एक सच ये है कि नेपाल में जब वामपंथी विचारधार के नेता राजनीतिक मैदान में उतरे तो कोइराला परिवार या नेपाली कांग्रेस हाशिए पर चली गई।
नेपाल की राजनीति में कोइराला परिवार को वहीं रुतबा हासिल था जो भारत में नेहरू-गांधी परिवार और पाकिस्तान में भुट्टो परिवार को हासिल था। लेकिन जिस तरह से आज भारत की राजनीति में नेहरू-गांधी परिवार अपनी ताकत को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ठीक वैसे ही पाकिस्तान में भुट्टो परिवार का हाल है। आखिर ये सब क्यों हुआ इसे हम जानने की कोशिश करेंगे।
नेहरू-गांधी परिवार और भारतीय राजनीति
आम तौर नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए कांग्रेस पार्टी गठित की गई थी। कांग्रेस से जुड़े तमाम दिग्गज नेताओं( जिसमें कई लोगों के विचार आपस में मेल नहीं खाते थे।) ने अंग्रेजों के खिलाफ अलख जगाया और अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराया। 1947 में देश को जब आजादी मिली तो लोगों के दिमाग में कांग्रेस की छाप कुछ यूं पड़ी कि करीब 1975 तक इस पार्टी का शासन भारत के करीब 67 फीसद हिस्सों में बना रहा। जवाहर लाल नेहरू को जहां लोग विकास का वाहत मानते थे। वहीं इंदिरा गांधी की छवि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, पोखरण टेस्ट के बाद आयरन लेडी के तौर पर उभरी। लेकिन एक सच ये था कांग्रेस के शासन में भ्रष्टाचार की खबरें,आपातकाल की घटना ने लोगों को नाराज भी कर दिया।
अस्सी के दशक के मध्य मेंइंदिरा गांधी सत्ता से बेदखल हुईं और जनता पार्टी के हाथ में सत्ता आई। लेकिन 1980 में एक बार फिर लोगों ने इंदिरा गांधी में भरोसा जताया। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी के हाथ में कमान आई और विरोधियों का ये आरोप पुख्ता हुआ कि कांग्रेस का मतलब ही नेहरू-गांधी परिवार है। कांग्रेस के किसी गैर गांधी टाइटल वाले नेता का पार्टी और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना मुश्किल है।हालांकि नरसिम्हराव,सीताराम केसरी और मनमोहन सिंह को अपवाद के तौर पर देखा जा सकता है। लेकिन जानकारों का कहना है कि ये तीनों शख्स इसलिए उस ओहदे पर पहुंचे क्योंकि हालात अलग थे। मनमोहन सिंह का उदाहरण देते हुए जानकार बताते हैं कि 10 साल के यूपीए शासन में सत्ता पूरी तरह से 10 जनपथ से नियंत्रित होती रही। इसके साथ ही 2009-2014 के दौरान यूपीए सरकार के दौरान घोटालों ने कांग्रेस को पूरी तरह बदरंग कर दिया। लेकिन कांग्रेस के खिलाफ सशक्त ढंग से आवाज उठाने वाला विपक्ष भी मौजूद था जिसने भारतीय जनता को बताया कि कांग्रेस के 6 दशक से ज्यादा शासन में किस तरह से भारत विकास के रास्ते से बेपटरी हो गया।
पाकिस्तान और भुट्टो परिवार
पाकिस्तान की राजनीति में भुट्टो परिवार की अगर चर्चा न हो तो पाकिस्तान की राजनीति को समझना मुश्किल है। 1947 में भारत के बटवारे के बाद दुनिया के नक्शे पर पाकिस्तान का उदय हुआ। लेकिन भारत का ये पड़ोसी मुल्क अंतर्विरोधों को आज तक झेल रहा है। भारत की ही तरह पाकिस्तान में लोकतंत्र ने दस्तक दी हालांकि एक सच ये भी है कि फौज के पहरे में लोकतंत्र फलता फूलता रहा। बेनजीर भुट्टो के पिता जुल्फिकार भुट्टो ने जब सेना के दबाव को मानने से इंकार किया तो उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा।
पाक सेना के तत्कालीन मुखिया जिया उल हक ने उन्हें फांसी दे दी। समय चक्र चलता रहा, और इस्लामाबाद ने अलग अलग चेहरों को देखा। जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर को कमान भी मिली लेकिन सेना का डंडा गाहे बेगाहे चलता रहा। पाकिस्तान के जिस किसी शासक ने कश्मीर के मुद्दे पर थोड़ा सा अलग हट कर काम करने की कोशिश की, सेना की तरफ से कड़ा प्रतिवाद हुआ। सैन्य शासन और लोकतांत्रिक सरकार में बेनजीर की पार्टी को मौका मिला। लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में भुट्टो परिवार इस कदर बदनाम हुआ कि पाकिस्तान के लोगों ने नकार दिया।
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