एक्टिंग के जरिए मुख्यधारा से जुड़ रहे 'स्लम सुपरस्टार्स', बांग्ला फिल्म ने कान फिल्म महोत्सव तक बनाई पैठ
कोलकाता की झुग्गी-झोपड़ियों के गरीब बच्चों ने अपनी प्रतिभा से विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म महोत्सव तक पैठ बनाई है। इन बच्चों ने, जो कूड़ा बीनते या भीख मांगते थे, बंगाली फिल्म 'ब्रिज टू यूटोपिया' में शानदार अभिनय किया। इस फिल्म का पोस्टर 78वें कान फिल्म महोत्सव में अनुपम खेर द्वारा लॉन्च किया गया। निर्देशक रिक जायसवाल ने बताया कि इन बच्चों ने बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के अद्भुत काम किया है। यह अनुभव उनके जीवन में बदलाव ला रहा है, जिससे वे अब पढ़ाई और अभिनय में भविष्य बनाने के सपने देख रहे हैं।
फिल्म की शूटिंग के दौरान बस्ती के बच्चों को एक सीन समझाते निर्देशक रिक जायसवाल।। (फोटो- जेएनएन)
विशाल श्रेष्ठ, जागरण, कोलकाता। किसी ने सच कहा है-प्रतिभा दबाए नहीं दबती। वह एक दिन निखरकर सामने आ ही जाती है। गरीबी में जन्मे व हालात के मारे कोलकाता के उल्टाडांगा इलाके की बस्ती के बच्चों ने अपने दमदार अभिनय से विश्व प्रसिद्ध कान फिल्म महोत्सव तक पहुंच बनाकर इस उक्ति को फिर से चरितार्थ किया है। इन बच्चों में कोई कूड़ा बीनता है, कोई प्लास्टिक की खाली बोतलें चुनता है तो कोई भीख मांगता है। सिर छिपाने के लिए टूटी-फूटी झोपड़ी है। माता-पिता आर्थिक रूप से बेबस हैं। दो वक्त का खाना जुटाना ही उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी जद्दोजहद है, पढऩा-लिखना तो कोसों दूर की बात है। छोटी सी उम्र में उनके सामने संघर्ष ही संघर्ष हैं, लेकिन सितारों को चमक बिखेरने से भला कौन रोक सकता है? इन बच्चों को एक मौका मिला और उन्होंने दिखा दिया कि वे भले बदहाली में हैं, लेकिन उनमें भी हुनर है। वे भी कुछ कर दिखाने का माद्दा रखते हैं। उनके द्वारा अभिनीत बांग्ला फीचर फिल्म 'ब्रिज टू यूटोपिया' के पोस्टर को पिछले दिनों 78वें कान फिल्म महोत्सव में लांच होने का सम्मान प्राप्त हुआ, वह भी वरिष्ठ फिल्म अभिनेता अनुपम खेर के हाथों। अनुपम खेर ने फिल्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
बिन अभिनय सीखे कर दिया कमाल
फिल्म के निर्माता-निर्देशक व लेखक रिक जायसवाल ने बताया-'इसमें आठ बच्चों ने काम किया है। ये वो बच्चे हैं, जिनकी जिंदगी सड़कों की धूल फांकती है, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा, कहीं अभिनय नहीं सीखा, फिर भी सबने मंजे हुए कलाकारों जैसी अदाकारी की है। यही नहीं, उन्होंने डबिंग भी खुद से की है, जो सबसे मुश्किल काम होता है। मेरे लिए वे 'स्लम सुपरस्टार्स' हैं। फिल्म में 11 वर्षीय कृष्णा यादव व उसकी आठ साल की छोटी बहन मनीषा यादव ने मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। अन्य बच्चों में मेघा हालदार, आयुष जाना, आकाश हालदार, राज दास, लोकनाथ दास, चांद हालदार ने अभिनय किया है। ये बच्चे आठ से 14 साल की उम्र के हैं।'
रिक ने आगे कहा-'मैं काफी समय से बस्तियों के बच्चों के जीवन-संघर्ष पर फिल्म बनाना चाहता था। उन्हें हर रोज कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, यह बताना चाहता था। मैंने इसके लिए डेढ़ साल तक कोलकाता की बस्तियों के बच्चों पर रिसर्च किया। मैं इस फिल्म में असल जीवन के किरदार चाहता था, जो हर रोज इससे जूझते हैं इसलिए इन बच्चों को चुना। उन्हें तैयार करने में काफी वक्त लगा। मैं पहले उनसे घुला-मिला, दोस्ती की, उनके साथ समय बिताकर उन्हें जाना, फिर धीरे-धीरे अपनी फिल्म के बारे में समझाकर उन्हें राजी किया। इसके बाद उनके साथ वर्कशाप कर अभिनय के गुर सिखाए, कैमरे का सामना करने का तरीका बताया। मैंने सोचा नहीं था कि ये बच्चे इतनी आसानी से ये सब सीïख लेंगे। शुरू में थोड़ी परेशानी जरूर हुई क्योंकि ऐसे बच्चों को इकठ्ठा करके उनसे काम करवाना चुनौतीपूर्ण था। पहले वे अनुशासित नहीं थे। किसी की नहीं सुनते थे। शरारतें करते थे। शूटिंग के समय इधर-उधर भाग जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे जब समझने लगे, तब उन्होंने अपना सौ प्रतिशत देना शुरू किया। यकीन मानिए, उन्होंने फिल्म के लिए रात-रातभर शूटिंग की। कैमरे के सामने कैसे खड़ा होना है, कहां देखकर डायलाग बोलने हैं, उस समय बाडी लैग्वेंज कैसी होनी चाहिए, ये सारा कुछ वे झट से समझ जाते थे। कई बार लगा कि पेशेवर कलाकार काम कर रहे हैं। ये बच्चे बस्ती में रहते जरूर हैं, लेकिन बेहद स्मार्ट व तेज हैं।'
रिक ने आगे कहा-'इन बच्चों के माता-पिता को भी बहुत समझाना पड़ा। वे हमें लेकर पहले काफी शंकित थे। उन्हें डर सता रहा था कि हम उनके बच्चों को लेकर कहीं भाग न जाएं या उनके साथ कुछ गलत न कर दें, हालांकि बाद में उन्हें भी समझ में आया कि उनके बच्चों की बेहतरी के लिए ही ये सब हो रहा है। हमने फिल्म की शूटिंग पिछले साल अक्टूबर में शुरू की थी और इस साल अप्रैल में इसे पूरा किया। ज्यादातर शूटिंग कोलकाता की बस्तियों में हुई है। कोलकाता की विश्व प्रसिद्ध दुर्गापूजा के समय भी रियल लोकेशनों पर कुछ दृश्य फिल्माए गए हैं। आने वाले समय में यह फिल्म विभिन्न फिल्मोत्सवों में प्रदर्शित होगी। फिल्म की अवधि एक घंटा 50 मिनट है।'
नए सपने बुन रहे बच्चे
फिल्म में काम करने का अनुभव इन बच्चों के जीवन में भी बदलाव ला रहा है। उनके सोचने-समझने व जिंदगी की ओर ताकने का नजरिया बदल रहा है। समाज से अलग-थलग ये बच्चे अब जीवन में कुछ कर दिखाने और समाज में योगदान करने के सपने बुन रहे हैं। मनीषा अब स्कूल जाने लगी है और फिल्मों में करियर बनाने के सपने देख रही है। वह मासूमियत से कहती है-'मैं तो बड़ी होकर अभिनेत्री बनूंगी। सब मुझे देखने सिनेमा हाल में आएंगे।' उसके भैया कृष्णा ने भी प्लास्टिक की बोतलें बीनने का काम अब छोड़ दिया है। वह भी आगे अभिनय में ही भविष्य बनाना चाहता है।
उनकी मां सपना यादव, जो एक 'सिंगल मदर' हैं, कहती हैं-'मेरे बच्चे इतने इतने प्रतिभाशाली हैं, मुझे पता ही नहीं था। अब लगता है कि वे जीवन में बहुत कुछ कर सकते हैं। मैं उन्हें कहीं से भी पैसे जुटाकर पढ़ाऊंगी।' फिल्म में काम करने वाले कई और बच्चे भी अब स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें देखकर बस्ती के अन्य लोग भी अपने बच्चों के भविष्य को लेकर सजग हो रहे हैं।
जानिए 'यूटोपिया' का अर्थ : 'यूटोपिया' शब्द का इस्तेमाल अक्सर एक आदर्शवादी समाज की कल्पना करने के लिए किया जाता है, जहां लोगों के पास अच्छे जीवन की सभी आवश्यक चीजें मौजूद होती हैं। यह एक स्वप्निल दुनिया है, जहां लोगों में समानता का भाव होता है, न्याय का शासन व शांति होती है।
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