पांच बच्चों से शुरू हुआ ब्रह्म विद्यालय बना विश्वभारती, टैगोर ने 1921 में रखी थी नींव
Centenary Celebrations Of Visva Bharati University गुरूदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने साल 1916 में पत्र में लिखा था कि शांति निकेतन को समस्त जातिगत तथा भौगोलिक बंधनों से अलग हटाना होगा। यही मेरे मन में है। समस्त मानव-जाति की विजय-ध्वजा यहीं गढ़ेगी।
राज्य ब्यूरो, बंगाल। Centenary Celebrations Of Visva Bharati University विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना 1921 में रवींद्रनाथ टैगोर ने पश्चिम बंगाल के शांति निकेतन नगर में की। यह भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है। यह एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है जिसके कुलपति प्रधानमंत्री हैं। इस संस्था ने कई नोबल पुरस्कार विजेता से लेकर सर्वोच्च सम्मान पाने वाले कई लेखक, गायक-गायिकाएं. चित्रकार, कलाकार आदि दिए हैं। शांति निकेतन के संस्थापक रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म कोलकत्ता में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता महर्ष देवेन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी साधना हेतु कोलकाता के निकट बोलपुर नामक ग्राम में एक आश्रम की स्थापना की जिसका नाम शांति-निकेतन रखा गया। गुरुदेव ने इसी भूमि पर बच्चों की शिक्षा हेतु एक प्रयोगात्मक विद्यालय स्थापित किया।
1901, 22 दिसंबर से रवींद्रनाथ के इस ब्रह्म विद्यालय ने औपचारिक रूप से काम करना शुरू कर दिया था, जिसमें पांच से अधिक छात्र नहीं थे। ब्रह्म विद्यालय बाद में शांति निकेतन और फिर विश्वभारती विश्वविद्यालय के नाम से प्रख्यात हुआ। गुरु-शिष्य सम्बन्धों पर विचार करते हुए टैगोर ने आधुनिक किशोर की समस्याओं का सहृदयता से अध्ययन किया। उनका मानना था कि शिक्षण संस्थाओं में व्याप्त अनुशासनहीनता को दूर करने के लिए जेल और मिलिट्री की बैरकों का कठोर अनुशासन काम नहीं दे सकता। उन्हें विश्वास था कि शिक्षा में आदान-प्रदान की प्रक्रिया यदि पारस्परिक सम्मान की भावना से युक्त हो तो अनुशासन की समस्या स्वयमेव ही सुलझ जाएगी।
शांति निकेतन की कुछ अनोखी पहचान हैं
पौष मेला
इस मेले का आयोजन सबसे पहले रवींद्रनाथ टैगोर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 1894 में किया था। सामान्य तौर पर दिसंबर महीने के आखिर में बंगाली पौष महीने में पौष मेले का आयोजन होता है। इसमें हथकरघा, शिल्प, कला के प्रदर्शन के साथ-साथ संगीत उत्सव का आयोजन होता है। यह मेला तीन दिन तक चलता है।
वसंत उत्सव
कविगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वर्षो पहले यहां बसंत उत्सव की परंपरा शुरू की थी, वो आज भी जैसी की तैसी है। विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में छात्र और छात्रएं पारंपरिक तरीके से होली मनाती हैं। लड़कियां लाल किनारी वाली पीली साड़ी में होती हैं। और लड़के धोती और कुर्ता पहनते हैं। वहां इस आयोजन को देखने के लिए बंगाल ही नहीं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों और विदेशों तक से भी भारी भीड़ उमड़ती है।
सप्तपर्णी की पत्तियां दी जाती है हर स्नातक को
यहां दीक्षांत समारोह में स्नातक होने वाले हर छात्र को सप्तपर्णी वृक्ष की पत्तियां दी जाती हैं। बांग्ला में इसे छातिम का पेड़ कहते हैं । इनमें सात पत्ताें के गुच्छे होते हैं। इसमें फूल इन्हीं के बीच उगते हैं। कविगुरु टैगोर ने गीतांजलि के कुछ अंश यहीं लगे सप्तपर्णी वृक्ष के नीचे ही लिखे थे। उनके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर सप्तपर्णी या छातिम के नीचे अक्सर ध्यान करते थे। शांति निकेतन में वृक्षारोपण भी किसी पर्व से कम नहीं है। गुरुदेव ही इस पंरपरा को स्थापित कर गए थे।
उद्देश्य
- विभिन्न दृष्टिकोणों से सत्य के विभिन्न रूपों की प्राप्ति के लिए मानव मस्तिष्क का अध्ययन करना।
- प्राचीन संस्कृति में निहित आधारभूत एकता के अध्ययन एवं शोध द्वारा उनमें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना।
- एशिया में व्याप्त जीवन के प्रति दृष्टिकोण एवं विचारों के आधार पर पश्चिम के देशों से संपर्क बढ़ाना।
- पूर्व एवं पश्चिम में निकट संपर्क स्थापित कर विश्व शांति की संभावनाओं को विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान द्वारा दृढ़ बनाना।
- एक ऐसे सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना करना, जहां धर्म, साहित्य, इतिहास, विज्ञान एवं हिन्दू, बौद्ध, जैन, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य सभ्यताओं की कला का अध्ययन और उनमें शोधकार्य, पश्चिमी संस्कृति के साथ, आध्यात्मिक विकास के अनुकूल सादगी के वातावरण में किया जाए।
1921 में यत्र विश्वम भवत्येकनीडम (सारा विश्व एक घर है) के ध्येय के साथ गुरूदेव ने विश्वभारती विश्वविद्यालय (शांति निकेतन) की स्थापना की।
- कोई छात्र किसी एक विभाग में प्रवेश पाने के पश्चात किसी दूसरे विभाग में भी बिना कोई अतिरिक्त शुल्क दिए शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
- विदेशी छात्रों को नियमित छात्र के रूप में या अस्थायी छात्र के रूप में भी प्रवेश दिया जा सकता है।
- ड्राइंग, पेंटिंग, मूर्ति कला, चर्म कार्य, कढ़ाई, नृत्य, संगीत आदि ललित कलाओं में तथा चीनी व जापानी भाषाओं में शांति निकेतन ने विशेष ख्याति प्राप्त की है। इन क्षेत्रों में शान्ति निकेतन का योगदान विशिष्ट है।
- खुले मैदानों में या वृक्षों के नीचे प्रकृति के सान्निध्य में और स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा दी जाती है।
- गुरु-शिष्य के आदर्श सम्बन्धों को पुन: स्थापित किया जा रहा है। विश्वविद्यालय का पुस्तकालय बहुत प्रसिद्ध है, जहां लगभग दो लाख पुस्तकों का संग्रह है।
कई मौकों पर अशांत हुआ शांति निकेतन
दीवार पर विवाद : गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन (विश्व भारती) बीते कई सालों से अशांत सा नजर आ रहा है। राष्ट्रीय महत्व के शैक्षिक संस्थान में हिंसा, तोड़फोड़ एवं अराजकता को लेकर कई खबरें सामने आ रही है। हाल ही में प्रशासन पौष मेला मैदान के आसपास दीवार बनवाने को लेकर जमकर विवाद हुआ। विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है जमीनों पर कब्जा हो रहा है जबकि स्थानीय रहवासी और अन्य संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है यह गुरुदेव की सोच के खिलाफ है। मामला इतना गरमाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके पहले परिसर से नोबल पुरस्कार चोरी होने का मामला भी गहराया था। यही नहीं, कुलपति को घंटों तक कमरे में बंद करने पर भी विवाद हो चुका है।
शिवानी की यादों में: गिलहरी की कुटुर-कुटुर के साथ पानीपत के युद्ध का पाठ
विश्व भारती थी उनकी प्रिय कर्मभूमि। छोटे बड़े का भेद वहां की पावन रांगामाटी में घुल-मिलकर एक हो जाता था। त्रिपुरा के राजकुमार और कूचविहार की राजकन्या भी सबके साथ काठ (लकड़ी) की बेंच पर बैठकर खाना खाते और अपने-अपने आसन लेकर पेड़ों की सुशीतल छाया तले परम उल्लास से पढ़ने बैठ जाते। यहां बालकों के कोमल हृदयों को किताबी बेड़ियों में जकड़ा नहीं जाता था। पुस्तकें भी बड़ी रोचक, तस्वीरों से भरी, मुलायम जिल्द और मखमली पन्नेदार होती थीं। बच्चे ऐसे प्रेम से पुस्तकें खोलकर बैठ जाते, जैसे परीक्षा की पुस्तकें नहीं मिठाई का डिब्बा हो।
शिशु भवन के नन्हें छात्रों की एक घंटे की गॉल्पेर क्लास (कहानी की कक्षा) लगती थी । जब कभी पता लगता कि आज उनकी यह क्लास अवनींद्र नाथ टैगोर लेंगे तो बच्चों के साथ बड़े-बूढ़ों की भीड़ जुट जाती। गिम्स और एंडरसन की कलम का जादू फीका पड़ जाता। मैंने उसी कक्षा में मोमेर पुतुल (मोम की गुड़िया) की कहानी सुनी थी। सचमुच ही शांति निकेतन गुरुदेव की पवित्र तपोभूमि का साकार स्वप्न था। न वहां चहारदीवारियों से घिरी कक्षाएं थीं, न छत का अंकुश। जहां तक दृष्टि जाए, उन्मुक्त नील गगन। पढ़ते-पढ़ते ऊब जाए तो आसमान पर चहकते परिंदों को देखने पर बंदिश नहीं। लिखते-लिखते हाथ थक जाए तो पास से गुजरते संथाल दल के दो-गजी मादक बंशी के स्वर को सुनने पर कोई बंदिश नहीं थी। डाल पर बैठे कबूतर, कुटुर-कुटुर खाती गिलहरी की उछल-कूद देखकर भी पानीपत की तीनों युद्धों के दुरूह तारीखों को कंठस्थ कर लेते थे।
अकबर की धार्मिक नीति और विलियम बैंटिक के शासनकालीन सुधारों का गुरूत्तर बोझ, आश्रम के छात्रों को कंधों पर भी उतना ही था, जितना अन्य शिक्षण संस्थानों के छात्रों पर किंतु पढ़ने-पढ़ाने की ऐसी भौतिक व्यवस्था थी कि नन्हें मष्तिष्कों पर स्कूली पढ़ाई कभी भी बोझ बनकर नहीं उतरी। आत्म संयम, उनको आश्चर्य जनक रूप से सचेत बनाए रखता।
(ख्यात लेखिका पद्मश्री शिवानी की पुस्तक आमादेर शांति निकेतन से लिया गया अंश। उन्होंने यहां आठ साल तक रहकर पढ़ाई की और स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी।)