Hindi Diwas 2022: कोलकाता से प्रकाशित देश के सर्वप्रथम हिंदी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तंड' ने दिखाई थी ज्ञान की राह
प्रो. शंभुनाथ कहते हैं-हिंदी लगभग 55 करोड़ लोगों की भाषा है और लगभग 1200 वर्षों के विकासों की देन है। इसे समावेशी भारतीय संस्कृति तथा विश्व के ज्ञान भ ...और पढ़ें

राज्य ब्यूरो, कोलकाता। रूढ़िवादिता की जंजीरों में जकड़े भारतीयों को कोलकाता से प्रकाशित हुए देश के सर्वप्रथम हिंदी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तंड' ने ज्ञान की राह दिखाई थी और जनमानस को हिंदी के महत्व का भी बोध कराया था। उदन्त मार्तंड का प्रकाशन 30 मई, 1826 को तत्कालीन कलकत्ता में एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक समाचार पत्र निकल रहे थे, किन्तु हिंदी में एक भी नहीं था। इसे देखते हुए जुगल किशोर सुकुल ने यह बीड़ा उठाया, हालांकि इसके कुल 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए। डेढ़ साल बाद दिसंबर, 1827 में अर्थ की कमी की वजह से इसका प्रकाशन बंद हो गया।
1,200 वर्षों के विकासों की देन है हिंदी : प्रो. शंभुनाथ

भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और 'वागर्थ' मासिक के संपादक प्रो. शंभुनाथ कहते हैं-'हिंदी लगभग 55 करोड़ लोगों की भाषा है और लगभग 1,200 वर्षों के विकासों की देन है। इसे समावेशी भारतीय संस्कृति तथा विश्व के ज्ञान भंडार से अलग नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि इसपर जो लोग एकरेखीय ढांचा और संकुचित इतिहास थोप रहे हैं, वे हिंदी को 'कूप जल' बना रहे हैं! हर राष्ट्रीय भाषा अपने देश की आत्मा को जानने का द्वार है! हमें कहना होगा कि अपने देश को विविध तरह से जाना जा सकता है।
दूसरी तरफ, भारत जितना बड़ा देश है, उसे जानने के लिए उतना बड़ा दिल भी होना चाहिए। यदि कोई हिंदी को व्यक्तिवाद या अतीत की जड़ धारणाओं में सीमित करता है तो यह दृष्टि की संकीर्णता है। यह आत्मक्षय है। दरअसल किसी भाषा में जब स्मृति एक कुआं तथा कल्पना एक बड़े पत्थर में बदल जाती है तो इससे भाषा का दम फूलता है।'
उन्होंने आगे कहा-'हिंदी राजभाषा के लेबल के कारण जितनी वह राजभाषा है उससे अधिक बदनाम है। दरअसल असली राजभाषा या सत्ता की भाषा तो अंग्रेजी है। ऊंचे पदों पर जाने वाली सारी शिक्षा अंग्रेजी में दी जा रही है। हिंदी पढ़ने वाले आमतौर पर सिर्फ मास्टर या अनुवादक बनते हैं! हिंदी पर गर्व करना किसी के पेशे का हिस्सा हो सकता है, पर उसकी वास्तविक हालत बहादुर शाह जफर जैसी है, जो नाममात्र का बादशाह था। हिंदी का दर्द भी जफर के दर्द-सा है!
हिंदी को जीने की है आवश्यकता
प्रो. शंभुनाथ कहते हैं-'हम हिंदी को चारागाह समझते हैं, इसमें जीते नहीं हैं। एक भाषा में जीने का अर्थ है, उसके उच्च मूल्यों और सुंदरताओं से जुड़ी संस्कृति में जीना। अपने 'मैं' के बाहर भी सोचना, सम्पूर्ण देश-दुनिया के बारे में सोचना। वस्तुतः तभी अपनी भाषा में विस्तार आता है। छोटा मन लेकर महान भाषा का निर्माण नहीं हो सकता। आम निगाह में हिंदी को फिल्मों, नाच- गानों और टीवी सीरियल की भाषा से अधिक नहीं समझा जाता। हिंदी में जिस तरह वीर रसात्मक और हास्यास्पद कवि सम्मेलन होते हैं, दूसरी किसी भाषा में नहीं होते! जो लोग हिंदी नहीं समझते, वे सिर्फ हिंदी गानों और म्यूजिक की वजह से हिंदी को जानते हैं।
कई बार लगता है कि हिंदी सिर्फ इसलिए सुरक्षित है कि यह मनोरंजन उद्योग की भाषा है। साहित्य की किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने की सबसे कम रुचि हिंदी लोगों में है। यदि नेताओं, मीडिया एंकरों और इधर की युद्धात्मक बहसों की हिंदी देखें तो अपशब्दों और कुतर्कों से सबसे अधिक प्रदूषित हिंदी भाषा हुई है! यह सब हिंदी की दुखांतकी है या इस भाषा के गौरव का चिन्ह, इसपर विचार करना चाहिए। हिंदी दिवस जरूर मनाइए, लेकिन सोचना ऐसी चीज नहीं है, जिसे हम भूल जाएं !!'

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