कवि होकर जीना न जीने के बराबर : अरुण कमल
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कोलकाता, जागरण संवाददाता : हिंदी के सुपरिचित कवि अरुण कमल ने कहा है कि कवि होकर जीना नहीं जीने के बराबर है। कवि को आम आदमी की तरह जीना चाहिए, भद्र व्यक्ति की तरह नहीं। कविता का भद्र होना ठीक नहीं। उसे सामान्य रहना चाहिए। कवि को पब्लिक फिगर नहीं होना चाहिए,सामान्य जन रहना चाहिए। अरुण कमल बीती रात महात्मा गाधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में आयोजित संवाद कार्यक्रम में पूछे गए प्रश्नों के जवाब दे रहे थे। आलोचक गौतम सान्याल के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कविता जीवन के अनुभवों से होनेवाले सुख को बढ़ा देती है। कविता का प्रभाव इतना पड़ता है कि वह व्यक्ति के चरित्र तक को बदल देती है। मुक्तिबोध ने खुद उनके चरित्र को प्रभावित किया। मृत्यु के डर को दूर किया।
अरुण कमल ने कहा कि भाषा के बाहर कुछ भी घटित नहीं होता। भाषा के बाहर कविता भी संभव नहीं है। एक अन्य सवाल के जवाब में अरुण कमल ने कहा कि बिम्ब आरंभिक अवस्था है। बिम्ब बढ़ते-बढ़ते प्रतीक में बदल जाता है। एक दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि पूरे एशिया में बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ा किंतु एशिया के साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव बहुत कम पड़ा। अरुण कमल का मानना था कि समूची विश्व कविता में विचार दरअसल रोमाटिक कविता के साथ आया। कविता और कला दोनों के लिए विचार की महत्वपूर्ण भूमिका है। नए कवियों में नए विचार और नए अनुभव आ रहे हैं। नए अनुभवों वाले नए स्वर का स्वागत किया जाना चाहिए। एक अन्य प्रश्न के जवाब में अरुण कमल ने कहा कि जब तक रचना मूर्त न हो जाए, रचनाकार प्रसव जैसी यातना से गुजरता है।
वरिष्ठ पत्रकार विश्वंभर नेवर के सवाल के जवाब में अरुण कमल ने कहा कि हिंदी समाज में कविता के लिए प्रत्यक्षत: जगह नहीं है। इस अवसर पर आलोचक डा. गोपेश्वर सिंह ने कहा कि हिंदी कविता की अपनी बुनियादी समस्याएं हैं। आज के कवि से वही अपेक्षाएं नहीं हैं जो पहले के कवियों से थीं। संवाद कार्यक्त्रम का संचालन युवा कवि निशात ने किया और धन्यवाद ज्ञापन महात्मा गाधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र के प्रभारी डा. कृपाशकर चौबे ने किया।
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