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    'रोजा' का अर्थ बुराइयों से 'रुकना'

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    Updated: Wed, 15 Jun 2016 07:18 PM (IST)

    -रोजा में निहित है भौतिक व मानसिक संयम इरफान-ए-आजम, सिलीगुड़ी : अरबी शब्दकोष में शब्द 'अस्सौम'

    -रोजा में निहित है भौतिक व मानसिक संयम

    इरफान-ए-आजम, सिलीगुड़ी :

    अरबी शब्दकोष में शब्द 'अस्सौम' एवं उर्दू शब्दकोष में इसके समानार्थक शब्द 'रोजा' का अर्थ है 'रुकना'। इसका आशय है बुराइयों से रुकना, पापों से रुकना। पवित्र रमजान महीने में सूर्योदय पूर्व से लेकर सूर्यास्त पश्चात तक व्यक्ति द्वारा किए गए रोजा (उपवास) के प्रयोग में यह यह प्रायोगिक दर्शन निहित है।

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    उन समस्त चीजों से रुकना, बचे रहना, परहेज करना रोजा की पहली शर्त है जिन चीजों से रोजा (व्रत, उपवास) टूट जाता है। वे चीजें हैं खाना, पीना, हमबिस्तर होना अर्थात सहवास आदि। इन चीजों के करने से रोजा टूट जाता है। ये भौतिक चीजें हैं जिनके करने से रोजा नहीं होता है।

    इस्लाम धर्म में 12 वर्ष से अधिक उम्र के हर स्वस्थ्य व्यक्ति पर रोजा फर्ज (अनिवार्य) है। अर्थात, पवित्र रमजान के महीने भर रोजाना सूर्योदय पूर्व से सूर्यास्त पश्चात तक हरेक स्वस्थ्य व्यक्ति को रोजा रखना अनिवार्य है। केवल नि:शक्त, वृद्धों, गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्तियों एवं कहीं लंबी यात्रा पर निकले यात्री को ही इससे छूट है। वह भी इस शर्त पर कि जब बीमार स्वस्थ हो जाए, गर्भवती महिला प्रसव के बाद स्वस्थ हो जाए, और यात्री की यात्रा संपन्न हो जाए तो आम दिनों में वह उतने दिन तक रोजा रख कर बकाया अदा करे जितने दिनों तक बीमारी अथवा यात्रा के कारण रोजा नहीं हो पाया।

    पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के उपदेशों के संग्रह अर्थात हदीस में कहा गया है कि रमजान अल्लाह पाक का महीना है। अल्लाह ने इस पवित्र महीने के समस्त विधि-विधान को सब पर अनिवार्य कर दिया है। हरेक स्वस्थ्य व्यक्ति को इस पर हर हाल में अमल करना है। नहीं करेगा तो पाप का भागी होगा। महीने भर का यह प्रयोग लोगों पर ऐच्छिक की जगह अनिवार्य इसीलिए किया गया है कि वे हर हाल में इसे करें और रूह (आत्मा) के शुद्धिकरण व जीवन की पवित्रता अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लें।

    रमजान में ऊपरोक्त भौतिक पाबंदी अर्थात खाने, पीने, सहवास आदि के साथ ही साथ रमजान के रोजों के दौरान लोगों पर मानसिक पाबंदियां भी हैं। केवल भूखे-प्यासे रह जाना ही रोजा नहीं है वरन तन-मन सबका रोजा अर्थात व्रत रखना अनिवार्य है। आंखों का रोजा ये है कि बुरा न देखें। कानों का रोजा ये है कि बुरा न सुनें। जुबान का रोजा ये है कि बुरा न बोलें, गाली-गलौज, पीठ पीछे किसी की बुराई, चुगली, आदि से परहेज करें। हाथों का रोजा यह है कि कुछ गलत न करें, गलत न लिखें, गलत न तौलें, किसी पर जुल्म न करें आदि। पांवों का रोजा यह है कि बुराई की ओर न जाएं। मन का रोजा यह है कि लोभ-लालच, ईष्र्या-द्वेष, काम-वासना, हवस, बेईमानी, पाप से मुक्त हों। मन को संयमित व नियंत्रित रखें। अपने व्यक्तित्व से सबका भला करें।

    पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने कहा है कि जिसने रोजा रख कर भी झूठ और पाप को नहीं छोड़ा तो अल्लाह पाक को उसके रोजे से कुछ लेना-देना नहीं है। इस महीने में पवित्र कुरआन का पाठ, रोजाना पांचों वक्त नमाज की अदायगी, रोजा, निर्धनों-जरूरतमंदों के बीच दान-पुण्य आदि के सहारे अल्लाह की इबादत कर अल्लाह को राजी कर लेना, अपने पापों की क्षमा प्राप्त कर लेना, आइंदा पापों से तौबा करना आदि उत्तम आशय ही सर्वोपरि है।

    हर साल रमजान के महीने भर यह अनूठा प्रयोग इसीलिए अनिवार्य किया गया है कि महीने भर के प्रयोग से व्यक्ति साल भर और जीवन भर इसी चक्र के सहारे आजीवन संयमित, नियंत्रित व संतुलित रहे। कुल मिला कर ईमानदारी से सादा जीवन जीए।