कोरोना में गुम हुई बाउल संगीत
संवाद सहयोगी रानीगंज करीब डेढ़ सौ वर्ष पुराने नारायण कुड़ी मथुरा चंडी का ऐतिहासिक

संवाद सहयोगी, रानीगंज : करीब डेढ़ सौ वर्ष पुराने नारायण कुड़ी मथुरा चंडी का ऐतिहासिक मकर सक्रांति मेला में इस वर्ष बाउल संगीत एवं आदिवासी नृत्य गीत सांस्कृतिक कार्यक्रम की धुन नहीं सुनाई पड़ेगी। आमोद प्रमोद के लिए होने वाली तीन दिवसीय इस मेले में मात्र मां चंडी का पूजा अर्चना एवं स्नान कार्यक्रम की अनुमति है। रानीगंज शहर से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर दामोदर नदी के किनारे मां मथुरा चंडी का भव्य मंदिर है। श्रद्धालुओं का मानना है कि यहां स्नान करने एवं पूजा अर्चना करने से मन्नत पूरी होती है। लोक संस्कृति वा आकर्षण का यह केंद्र बिदु है। दूरदराज से हजारों की संख्या में लोग इस मेला में आनंद लेने के लिए आते हैं। बंगाल के लोक संस्कृति पर आधारित बाउल संगीत कवि गीत, आदिवासी नृत्य, बंगला कीर्तनिया समाज का अनूठा संगम यहां होता है। मथुरा चंडी कमेटी के सदस्य अरविद सिघानिया एवं भूतनाथ मंडल ने बताया कि महामारी की वजह से मेला पर प्रतिबंध है। राज्य सरकार के गाइडलाइन के अनुरूप यहां स्नान एवं पूजा का अनुमति है।
पिछले दो दशक से क्षेत्र के विकास के लिए मथुरा चंडी कमेटी लगातार इस क्षेत्र को धरोहर घोषित करने के लिए आंदोलन कर रही है। जिसका परिणाम फल इस बार देखने को मिला। यहां वर्तमान में राज्य सरकार ने लगभग दो करोड़ के खर्च पर कम्युनिटी हाल बनवाया है। मथुरा चंडी परिसर को सजाया संवारा गया है। यहां प्रत्येक वर्ष हजारों लोगों के भोजन का प्रबंध कमेटी करती आई है।
इस स्थल की विशेषता यह है कि भारत में प्रथम कोयला खनन का काम 1834 में कार टैगोर कंपनी अर्थात रविद्र नाथ ठाकुर के पितामह देवेंद्र नाथ ठाकुर ने पहला खनन यहां शुरू किया था। आज भी यहां वह पुरानी कोयले की खान का अवशेष, कोयला ढुलाई करने के लिए बनी जेटी अर्थात घाट आज भी है। यहां से कोयले को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिए नौका का व्यवहार किया जाता था। अर्थात बैलगाड़ी का युग था। दामोदर नदी के तीर पर बड़े ही रमणीय स्थल के रूप में प्रचलित है। आए दिन शोधकर्ता यहां आया करते हैं। अब तो या स्थल पिकनिक स्थल के रूप में भी प्रचलित हो गई है।
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