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    Uttarkashi Tunnel Rescue: बच्चों से ज्यादा मजदूरों की चिंता... ऑपरेशन के नायक मुन्ना कुरैसी की कहानी भावुक कर देगी

    Uttarkashi Tunnel Rescue रैट माइनर्स मुन्ना कुरैशी जब सुरंग अंदर पहुंचा तो 17 दिन से जिंदगी की राह देख रहे श्रमिकों ने उसे गले लगाकर पलकों पर बैठा दिया। इतना स्नेह पाकर मुन्ना भावुक हो उठा। उसे अपने तीनों नन्हें बच्चों की याद आ गई जिन्हें वह 22 नवंबर को दिल्ली में अपनी खाला (मौसी) के पास छोड़ आया था।

    By Jagran NewsEdited By: Prince SharmaUpdated: Sun, 03 Dec 2023 06:30 AM (IST)
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    मुन्ना कुरैशी ने बताया कि नियति उसकी हमेशा परीक्षा लेती रही है

    शैलेंद्र गोदियाल, उत्तरकाशी। 28 नवंबर को सिलक्यारा सुरंग के आखिरी हिस्से की खोदाई कर जब रैट माइनर्स मुन्ना कुरैशी अंदर पहुंचा तो 17 दिन से जिंदगी की राह देख रहे श्रमिकों ने उसे गले लगाकर पलकों पर बैठा दिया। इतना स्नेह पाकर मुन्ना भावुक हो उठा। उसे अपने तीनों नन्हें बच्चों की याद आ गई, जिन्हें वह 22 नवंबर को दिल्ली में अपनी खाला (मौसी) के पास छोड़ आया था।

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    होश संभाला तो रोजगार के लिए भटकना पड़ा

    सिलक्यारा आते हुए मुन्ना ने सिर्फ अपने दस वर्षीय बेटे को बताया था कि वह दो दिन में काम खत्म कर लौट आएगा। लेकिन, निकास सुरंग में औगर मशीन का एक हिस्सा फंस जाने के कारण समय अधिक लग गया। फोन पर दैनिक जागरण से बातचीत में मुन्ना कुरैशी ने बताया कि नियति उसकी हमेशा परीक्षा लेती रही है। उसका मूलगांव उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में पड़ता है। वहां किसी ने उनकी जमीन हड़प ली थी, इसलिए उसके पिता को दिल्ली आना पड़ा। बताया कि 12 वर्ष की उम्र में माता-पिता का साया उसके सिर से उठ गया था। तब चाचा व अन्य रिश्तेदारों ने उसे पाला। होश संभाला तो रोजगार के लिए भटकना पड़ा।

    गर्भवती पत्नी की हो गई थी मौत

    इसी बीच वह जोखिमपूर्ण कार्य करने वाले रैट माइनर्स के संपर्क में आया और दिल्ली के राजीव नगर स्थित खजूरीखास श्रीराम कालोनी में किराये का एक कमरा लेकर रहने लगा। मुन्ना ने बताया कि वर्ष 2021 में उसकी गर्भवती पत्नी की मृत्यु हो गई। इस घटना उसके लिए सिर पर पहाड़ टूटने जैसी थी। फिर भी जैसे-तैसे उसने स्वयं को संभाला। तब कोविड चल रहा था, इसलिए उसने मास्क भी बांटे। बताया कि उसका बेटा दस वर्ष का है और चौथी कक्षा में पढ़ता है, जबकि बड़ी बेटी आठ और छोटी पांच वर्ष की है।

    खुशी इस बात की है कि 41 जिंदगियां बच गईं

    मुन्ना ने बताया कि 22 नवंबर को जब वह उत्तराखंड के सिलक्यारा के लिए रवाना हुआ तो इस बावत उसने अपने चाचा को भी कुछ नहीं बताया। सिर्फ बेटे को बताकर ही चला आया। खैर! खुशी इस बात की है, सब-कुछ अच्छा हुआ और 41 जिंदगी बच गईं। बकौल मुन्ना, 'मैंने सुरंग के अंदर का आखिरी पत्थर और मलबे का हिस्सा हटाया तो वहां कैद लोग मुझे देखकर खुशी से झूम उठे। फिर उन्होंने मुझे बारी-बारी से गले लगाया और चाकलेट व बादाम खिलाए। इससे मुझे बच्चों की याद आ गई। श्रमिकों तक पहुंचना मेरे जीवन का वह क्षण है, जिसे मैं धरोहर की तरह संजोकर रखूंगा।’ मुन्ना की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि उसे नियमित कार्य नहीं मिल पाता। कहता है, तीन हजार रुपये महीने का कमरा है। बस! किसी तरह जीवन की गाड़ी खींच रहा हूं।

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