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आप यकीन नहीं करेंगे! इन्होंने नहीं देखी है ट्रेन, मोबाइल इनके लिए अजूबा

उत्तराखंड के सर-बडियार पट्टी के आठ गांवों और झारखंड के जरकी गांव को विकास का इंतजार है। इन ग्रामीण बाशिंदों के लिए ट्रेन और मोबाइल जैसी सुविधाएं आज भी किसी अजूबे से कम नहीं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 22 Jul 2018 09:21 AM (IST)Updated: Mon, 23 Jul 2018 05:20 PM (IST)
आप यकीन नहीं करेंगे! इन्होंने नहीं देखी है ट्रेन, मोबाइल इनके लिए अजूबा
आप यकीन नहीं करेंगे! इन्होंने नहीं देखी है ट्रेन, मोबाइल इनके लिए अजूबा

उत्तरकाशी/जमशेदपुर [जेएनएन]: थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है... कागजी प्रतिमानों के उलट, जमीनी हकीकत जरूरत पर जोर देती आई है। अब भी दे रही है। जरूरत है समग्र विकास की। जिसकी जद  में सुदूर गांवों भी हों। उत्तराखंड के सर-बडियार पट्टी के आठ गांवों और झारखंड के जरकी गांव को भी विकास का इंतजार है। 21वीं सदी के भारत के इन ग्रामीण बाशिंदों के लिए ट्रेन और मोबाइल जैसी सुविधाएं आज भी किसी अजूबे से कम नहीं।

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भारत-चीन सीमा से लगे उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की सर-बडियार पट्टी के आठ गांव आज भी सड़क और संचार सुविधा से पूरी तरह कटे हुए हैं। दोटूक कहें तो इन गांवों तक पहुंचने वाले पैदल रास्ते भी चलने लायक नहीं हैं। इतना ही नहीं, आलम तो ये है कि करीब 12,500 की आबादी वाले सर-बाडियार क्षेत्र के बाशिंदों के लिए तो मोबाइल भी अजूबा है।

पुरोला तहसील की सर-बडियार पट्टी में सर, पौंटी, डिंगाड़ी, लेवटाड़ी, छानिका, गोल, किमडार व कस्लौं गांव पड़ते हैं। तहसील मुख्यालय पुरोला से  इन गांवों तक पहुंचने के लिए 18 किमी से अधिक पैदल चलना पड़ता है।  वह तो शुक्र है ऊर्जा निगम का, जिसने इस बार गांव में बिजली पहुंचा दी। डिंगाड़ी और सर गांव में आठवीं के बाद बच्चों की शिक्षा पर विराम लग जाता है। सर-बडियार का सबसे नजदीकी इंटर कॉलेज 12 किमी दूर सरनौल में है। डिंगाड़ी में स्थित आयुर्वेदिक चिकित्सालय भी चिकित्सक विहीन है। इधर, जिलाधिकारी डॉ. आशीष चौहान कहते हैं, सर-बडियार में सड़क और संचार की सुविधा उपलब्ध कराना प्राथमिकता में शामिल है।

 

 रेलगाड़ी पर नहीं सवार हुआ इस गांव का कोई व्यक्ति : 

अब चलते हैं जमशेदपुर, झारखंड के जरकी गांव की ओर। देश-दुनिया से पूरी तरह कटा हुआ है जमशेदपुर शहर से 45 किलोमीटर दूर जरकी गांव। डेढ़ सौ की आबादी वाले इस गांव में किसी ने ट्रेन तक नहीं देखी है, सफर तो दूर की बात है। ग्र्रामीण पूरी तरह जंगल पर निर्भर हैं। इन्हें बिजली और मोबाइल नेटवर्क भी मुहैया नहीं है।

यहां के लोग प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक का नाम नहीं जानते हैं। करीब डेढ़ सौ की आबादी वाले इस जरकी गांव में आपको पहुंचने के लिए पथरीली सड़क पर पैदल सफर करना होगा। गांव में एक भी पक्का घर नहीं है। लोगों का मुख्य पेशा लकड़ी काटना और बेचना है। जंगल पर निर्भर ग्रामीण पड़ोस के पटमदा बाजार में लकड़ी बेचकर पैसे हासिल करते हैं। ग्रामीण नारायण टुडू कहते हैं, अधिकतर ग्रामीण पटमदा से आगे नहीं गए हैं। उन्हें ऐसी जरूरत ही नहीं पड़ी। यही कारण है कि गांववाले कभी ट्रेन पर नहीं चढ़े और न ही ट्रेन देख पाए। वहीं, वासुदेव बताते हैं कि उन्होंने रेलगाड़ी की तस्वीर जरूर देखी है। 

बेलडीह पंचायत के मुखिया शिवचरण सिंह सरदार कहते हैं, यह सही है कि यहां विकास की रोशनी नहीं पहुंच पाई है। आदिवासी बहुल इस गांव के लोग आसपास के गांवों तक ही सिमट कर रह गए हैं। हिंदी नहीं जानते हैं। संथाली में ही बातचीत करते हैं। इस कारण देश-दुनिया से कटे हुए हैं। रेलगाड़ी पर भी नहीं चढ़े हैं। 

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